बाढ़, विकास और चेतावनी का संदेश

- नृपेन्द्र अभिषेक 'नृप'

मानव सभ्यता ने अपनी प्रगति की लम्बी यात्रा में नदियों, पहाड़ों, जंगलों और मौसम के साथ तालमेल बिठाकर जीवन की बुनियाद रखी थी। लेकिन जब से विकास का अर्थ केवल अंधाधुंध निर्माण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक सीमित कर दिया गया है, तब से प्रकृति का संतुलन गहराई से डगमगाने लगा है। हाल के वर्षों में उत्तर भारत के अनेक राज्यों- पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में आई भयानक बाढ़ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव निर्मित संकट भी है, जिसने हजारों लोगों के जीवन और आजीविका को तहस-नहस कर दिया।

हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में पहाड़ दरकने लगे, सड़कें और पुल बह गए, जबकि मैदानी क्षेत्रों में गांव-के-गांव जलमग्न हो गए। हजारों हेक्टेयर फसलें बर्बाद हो गईं, पशुधन बह गया और करोड़ों की संपत्ति पलभर में मिट्टी में मिल गई। जल प्रलय ने यह स्पष्ट कर दिया कि हम प्रकृति के साथ किए गए अन्याय की भारी कीमत चुका रहे हैं। बारिश का होना स्वाभाविक है, परंतु जब पहाड़ों को अंधाधुंध काटकर सड़कें बनाई जाती हैं, नदियों के किनारे बिना सोचे-समझे कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए जाते हैं और जंगलों को खत्म कर दिया जाता है, तो बारिश वरदान के बजाय अभिशाप बन जाती है।

इन दिनों मौसम विभाग की चेतावनी और भी गंभीर है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने सितंबर 2025 में सामान्य से अधिक वर्षा होने का अनुमान जताया है। आंकड़े बताते हैं कि यह औसत से 109 प्रतिशत अधिक हो सकती है। इसका सीधा मतलब है कि आने वाले समय में हमें और भी विनाशकारी बाढ़ों का सामना करना पड़ सकता है। उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पर्वतीय राज्यों के लिए यह चेतावनी विशेष रूप से खतरनाक है, क्योंकि वहां की भौगोलिक स्थिति पहले से ही आपदाओं के लिए संवेदनशील है। जब पहाड़ों पर लगातार वर्षा होती है तो ढलानों में दरारें पड़ जाती हैं और जरा-सी हलचल पर विशाल भू-भाग खिसक कर नीचे आ जाता है। इसे भूस्खलन कहा जाता है और यह हजारों लोगों की जान-माल पर भारी पड़ता है।



पंजाब और हरियाणा जैसे मैदानी राज्यों में बाढ़ का असर कृषि संकट को और गहरा कर देता है। पहले से ही खेती घाटे का सौदा बन चुकी है। ऊपर से जब हजारों हेक्टेयर फसलें जलमग्न हो जाती हैं तो किसानों की स्थिति दयनीय हो जाती है। जो किसान बाढ़ से उबर भी जाते हैं, उन्हें मिट्टी की उर्वरता कम होने, नमी जमाव और रोगों के फैलाव जैसी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस बार भी खेतों में खड़ी धान और मक्के की फसल पूरी तरह चौपट हो चुकी है।

इन आपदाओं की जड़ें केवल जलवायु परिवर्तन तक सीमित नहीं हैं। दरअसल, यह विनाशकारी विकास की देन हैं। पहाड़ों को काटकर हाईवे और टनल बनाने, नदी तटों पर होटल और रिसॉर्ट खड़े करने, खनन और वनों की अंधाधुंध कटाई ने आपदा की स्थितियों को और विकराल बना दिया है। पर्यावरणविदों का कहना है कि विकास परियोजनाओं को शुरू करने से पहले पर्यावरणीय आकलन और स्थानीय लोगों की सहमति अनिवार्य है, परंतु अक्सर राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण कानूनों का गलत इस्तेमाल कर कंपनियों को फायदा पहुंचाती हैं। ऐसे में विकास के नाम पर बर्बादी ही हाथ लगती है।

पिछले दशक की घटनाएं इसका प्रमाण हैं। 2013 में केदारनाथ की त्रासदी ने पूरी दुनिया को हिला दिया था। हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई और सैकड़ों गांव हमेशा के लिए उजड़ गए। विशेषज्ञों ने उस समय भी कहा था कि यदि नदियों के किनारे अंधाधुंध निर्माण न हुआ होता, तो तबाही इतनी बड़ी न होती। इसके बावजूद हालात में सुधार नहीं हुआ। 2024 में हिमाचल प्रदेश में हुई तबाही और 2025 की मौजूदा बाढ़ इस लापरवाही का ही नतीजा है। इस पूरे संकट का एक और पहलू प्रशासनिक शिथिलता है। बाढ़ प्रभावित राज्यों में आपदा प्रबंधन योजनाएं कागजों पर तो खूब बनाई जाती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनका क्रियान्वयन नहीं होता। राहत और बचाव कार्य देर से शुरू होते हैं, पीड़ितों तक दवाइयां और भोजन समय पर नहीं पहुंच पाते, और पुनर्वास योजनाएं सालों-साल अधूरी पड़ी रहती हैं। नतीजा यह होता है कि प्रभावित लोग अपने हाल पर छोड़ दिए जाते हैं और फिर वही त्रासदी बार-बार दोहराई जाती है।

आज जरूरत इस बात की है कि हम विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना सीखें। यदि हमें बाढ़ जैसी आपदाओं से बचना है तो सबसे पहले नदियों के किनारे हो रहे अतिक्रमण को रोकना होगा। पहाड़ों में अवैज्ञानिक तरीके से हो रहे निर्माण कार्यों पर तत्काल लगाम लगानी होगी। वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाकर वनीकरण को बढ़ावा देना होगा। नदी घाटियों और जल स्रोतों की प्राकृतिक धारा को अवरुद्ध करने वाली गतिविधियों को खत्म करना होगा। इसके साथ-साथ दीर्घकालिक उपाय भी आवश्यक हैं। गांव-गांव में वर्षा जल संचयन को अनिवार्य करना होगा, ताकि बाढ़ के पानी को संग्रहित करके उसका उपयोग किया जा सके। पहाड़ी राज्यों में सड़कों और पुलों का निर्माण भूकंपीय और भूस्खलन के अध्ययन को ध्यान में रखकर किया जाए। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्वास की योजनाओं को प्राथमिकता दी जाए और आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर प्रारंभिक चेतावनी तंत्र को और मजबूत किया जाए।

इस संकट से एक महत्वपूर्ण सबक यह भी मिलता है कि केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि समाज और व्यक्ति स्तर पर भी जिम्मेदारी निभानी होगी। हमें उपभोग की आदतों पर नियंत्रण करना होगा, ताकि संसाधनों का दुरुपयोग न हो। यदि हम प्लास्टिक, रसायनों और प्रदूषण फैलाने वाले साधनों का अंधाधुंध प्रयोग बंद करें तो पर्यावरण पर बोझ काफी हद तक कम किया जा सकता है। आखिरकार प्रकृति हमें लगातार चेतावनी दे रही है। बाढ़, भूस्खलन, चक्रवात और सूखा- ये सब केवल प्राकृतिक आपदाएं नहीं, बल्कि संकेत हैं कि हम सही रास्ते से भटक गए हैं। यदि हमने अब भी इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया तो आने वाले वर्षों में स्थिति और भयावह हो सकती है।



आज आवश्यकता इस बात की है कि विकास की नीतियों को पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से परखा जाए। हमें ऐसा विकास चाहिए जो टिकाऊ हो, जो प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करे, न कि उसके विनाश का कारण बने। यदि हम सचमुच चाहते हैं कि भविष्य की पीढ़ियां सुरक्षित रहें, तो हमें न केवल अपनी सोच बदलनी होगी, बल्कि व्यवहार में भी परिवर्तन लाना होगा। इसलिए, जल प्रलय की विभीषिका हमें यही सिखाती है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन ही जीवन रक्षा का मार्ग है। प्रकृति के संकेतों को समझना और उनके अनुरूप अपने जीवन और नीतियों को ढालना ही भविष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि हमने ऐसा किया, तो न केवल बाढ़ जैसी आपदाओं से बच पाएंगे, बल्कि एक हरित, सुरक्षित और स्थायी भारत का निर्माण भी कर सकेंगे।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts