प्रकृति : हो गई पानी-पानी
- ललिता जोशी
पानी की कीमत तो प्यासा ही जानता है । पानी नहीं तो ज़िंदगानी नहीं । पानी किसी भी सभ्यता के विकास के लिए जीवनदायी होता है । यही कारण है कि मनुष्य हमेशा से ही नदी तटों के पास अपनी बसावट करता था। अपनी इसी आदत का अभ्यस्त आदमी 21वीं शताब्दी में भी अपनी बसावट सड़कों और नदी के किनारों के आस-पास ही करता है । नदियों का पानी पूरे इलाके में जलापूर्ति के काम में लाया जाता है। गाँव देहात में खेती के लिए सिंचाई के काम आता है पानी तभी हम लोगों को खाने के लिए अनाज, फल और सब्जियाँ मिल पाती हैं ।
विगत वर्षों में विकसित बनने की चाहत के चलते इन्सानों ने अपने विवेक बुद्धि को एक तरफ रख विकास कार्य के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की । मगर इंसान यहीं नहीं रुका वो तो पहाड़ों का सीना चीर कर सड़कें बनाने में लगा हुआ है । विकास की मस्ती जब सिर चढ़ती है तो अदना सा आदमी खुद को शक्तिपुंज समझने लगता है । इसीलिए वो नदियों के किनारे बसने लगा और रिवरव्यू रिज़ॉर्ट, होटल बनाने लगा । जब नदी के किनारे पाट -पाट कर अपने सपनों के महल बनाता है तो नदियों का मार्ग बदल जाता है । नदियों के तटों को पाटकर नदियों की जगह पर मकान दुकान बना लिए ताकि वो सरलता से अपनी आजीविका अर्जित कर पाये । अपनी आजीविका के चक्कर में इन्सानों ने नदी नालों के हिस्से की जमीन भी डकार मारे बिना डकार ली। कहीं पहाड़ तोड़कर सड़क तो कहीं टनल बना डाली ।
विकास के खिलाफ कोई भी नहीं है क्योंकि विकास से ही सभी को रोजगार के अवसर मिलते हैं और देश की जीडीपी में वृद्धि होती है और देश के लोगों में समृद्धि आती है । जब प्रकृति अपना रोष प्रकट करती है तो विध्वंसकारी हो जाती तब ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि विकास कि कितनी कीमत अदा करें । जनता से टैक्स में मिलने वाली राशि से हजारों करोड़ों रुपये विकास कार्यों खर्च कर दिये जाते हैं लेकिन प्रकृति की एक हल्की सी आकाशीय गड़गड़ाहट हो जाए या फिर धरती थोड़ा सा हिल जाए अथवा नदी अपनी चाल बदल दे तो इन्सानों की जान सांसत में आ जाती है ।
पहाड़ से मैदान तक पानी बम्ब की दहाड़ और मार से प्रकृति पर काबू कर विकास की पताका फहराने का दंभ भरने वाला आदमी मौत से थर्र -थर्र कांपने लगता है और ईश्वर से अपनी जान की सलामती मांगता है । अबकी बरस बदल फटने की रिकार्ड तोड़ घटनायें हुई हैं । उत्तराखंड और हिमाचल ,जम्मू -कश्मीर सभी जगह बादलों ने स्वयं ही फट -फट कर इन्सानों के विकास को पानी -पानी कर दिया । वर्षा का जल अब तो शहरों में भी पसर कर अपनी पूरी कसर निकाल लेता है । मंडी ,कुल्लू ,किन्नौर , चमोली, धराली ,थराली ,किश्तवाड़ ,कठुआ में बादल फटे और फिर पानी के तीव्र वेग ने लोगों को अपने आगोश में ले लिया और कुछ तो ज़मींदोज़ हो गए और गाडियाँ यहाँ तक की बुलडोजर भी पानी के तीव्र आवेग में तिनके की तरह बह निकले , रह गए तबाही के निशान । कहीं पहाड़ दरके तो कहीं जमीन धसकी, हुआ ये पानी के कारण । पानी जीवनदायी है तो अति वृष्टि से जब पानी नदियों में आ जाता है तो वो जानलेवा बन जाता है । चारों और पानी होता है लेकिन फिर भी ये पानी इंसान पी नहीं पता । राशन और पानी की सप्लाई भेजी जाती है सरकार द्वारा ।
मानसून की कल्पना मात्र से तन -मन प्रफुल्लित हो जाता है। हमारी बॉलीवुड की फिल्मों में तो बारिश पर बहुत ही रोमांटिक गीत लिखे गए हैं और ये हीरो हिरोइनों पर फिल्माए जाते है । स्क्रीन पर हीरोइन पारदर्शी साड़ियों में नाचती -गाती नज़र आती हैं । कितने अच्छे लगते हैं ये सिल्वर स्क्रीन पर । इससे तो फिल्म का प्रोड्यूसर कमाई करता है । अरे जब ग्लोबल वार्मिंग से बारिश होती है तो वोबहुत ही अलार्मिंग होती है । जमके बरसो बरखा रानी की जगह अब लोग ही कहने लगे हैं जरा थम के बरसो बरखा रानी । बरखारानी जब ताबड़ -तोड़ बरसती है तो नदियों में बाढ़ आती है । पहाड़ दरकने लगते हैं और मार्ग अवरूद्ध हो जाते हैं , मकान ढह जाते हैं लोग बेघर होकर रह जाते हैं । जीवन भर की जमापूंजी से बने घर पलक झपकते ही टूट जाते ह । भयंकर भूस्खनल ,फ्लैशफ़्ल्ड बेतरतीब विकास के बाइप्रॉडक्ट हैं । विकास की तो ऐसी की तैसी कर डालते हैं ये जैसे कि ‘खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना ‘। पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला लो लगे उस जैसा है। अब तो जल जलजला लगने लगा।
जीवनदायी जल जब जीवन को ही लीलने लगे तो क्या करें । प्रकृति का धैर्य जब जवाब देने लगता है तो प्रकृति के पंचतत्व तांडव करने लगते हैं । कभी जलप्रलय ,तो कभी भयंकर भूकंप ,तो कभी सुनामी,तो कहीं सुखाड़, तो कहीं तूफान ,तो कभी आकाश से आती प्रचंड गर्मी जो सभी को झुलसा कर रख देती है। इसीलिए कहा भी गया है कि प्रकृति सभी कि आवश्यकता तो पूरी कर सकती है लेकिन किसी का लालच पूरा नहीं कर सकती । लोगों के लालच ने प्रकृति के साथ अत्याचार और अनाचार किया है । मनुष्य के इस कदाचार की सजा प्रकृति उसे बाढ़ और अतिवृष्टि और अपने आँय रौद्र रूपों से दे रही है । आल वेदर रोड बनाने वाले एक वेदर को ही नहीं झेल पाये । प्रकृति ने विकास का पानी – पानी कर दिया । प्रकृति सहजीवी है लेकिन विकास के नाम पर मनुष्य प्रकृति पर परजीवी हो गया। नतीजा हम सभी के सामने है।
(मुनिरका एंक्लेव, दिल्ली)
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