तरक्की की दौड़
 इलमा अज‍़ीम 
आर्थिक विकास की अंधी होड़ में न मानवीय संवेदनाएं बच रही हैं, न प्रकृति का संतुलन। प्रकृति अब चेतावनी देने के बजाय सीधा हिसाब चुकता कर रही है। सवाल यह है कि क्या हम आज सब कुछ जानकर भी अनजान बन रहे हैं और आंख मूंदकर विकास के नाम पर अपनी जड़ें खुद ही काट रहे हैं! देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं, लेकिन रोज सामने आने वाली आत्महत्या और हत्या की खबरें यह संकेत दे रही हैं कि नागरिक चेतना और मनोबल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। 
आए दिन होते रिश्तों के कत्ल, बलात्कार, छोटी-छोटी बातों पर हत्या और आत्महत्या- ये सब संकेत हैं कि मनुष्य मानसिक रूप से थकता जा रहा है और मानवीय मूल्यों को पीछे छोड़ चुका है। संवेदनशीलता लगातार घट रही है, सहनशीलता खत्म हो चुकी है। मगर एक-दूसरे से आगे निकलने की दौड़ बढ़ती जा रही है, जो तनाव, अकेलापन, रिश्तों में खटास और अविश्वास के रूप में दिखाई देती है।


 इसके कारण समाज के ताने-बाने को बचाना तो दूर, परिवार को बचा पाना भी मुश्किल हो गया है। आज वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आय, कारोबार और उत्पादन को ही सफलता का पैमाना मान लिया गया है। इस दौड़ में हम उन नैतिक जिम्मेदारियों और प्राकृतिक संतुलन को नजरअंदाज कर रहे हैं, जो जीवन की असली नींव हैं। हम भूल रहे हैं कि यह जीवन कोई ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता की देन नहीं है, जिसमें कोई चिप लगा कर अपने अनुसार नियंत्रण किया जाए। 
यह प्रकृति की देन है और जो उसके दिए जीवन के मूल और मोल को नहीं समझेगा, प्रकृति वह जीवन सूद समेत वापस ले लेगी। फिर क्यों आज मनुष्य सब जानते हुए भी अनजान बन रहा है? आज पहले के समय से तुलना करें तो परिस्थिति बिल्कुल उलट गई है। उस समय इंसान और प्रकृति के बीच एक गहरा रिश्ता था। दोनों के बीच एक सामंजस्य बना हुआ था। 


हमारे बुजुर्ग पेड़-पौधों, ऋतुओं, नदियों और पशुओं की पूजा करते थे। वे भले पढ़े-लिखे कम थे, लेकिन उन्हें अच्छी तरह पता था कि जो कुछ हमें मिल रहा है, वह प्रकृति की ही देन है। अगर इसके प्रति भाव बदल गया तो तबाही तय है। गांवों में लोग सादा जीवन जीते थे और सामूहिकता पर जोर देते थे। संवेदनाएं और जिम्मेदारियां भी साझा होती थीं। गली-मोहल्ले के लोग भी रिश्तों से जुड़े होते थे, जिससे भाईचारे का संदेश मिलता था। आज सब उलट है।

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