राजा हिरण्यगर्भ आखेट का शौक़ीन था। जब भी वह आखेट के लिए जाता तो चारों ओर हाहाकार मच जाता। वन प्रदेश में मृगों में एक बड़ा अद‍्भुत मृग था। वह मृग सोचता था कि ईश्वर ने खाने के लिए अनेक चीजें पैदा की हैं, फिर भी मनुष्य जीवों का शिकार क्यों करता है? उसने इस बात को लेकर राजा के पास जाने का निश्चय किया। प्रभात का समय था। राजा आखेट के लिए तैयार हो रहा था। सहसा एक सुंदर मृग राजा के सामने जाकर खड़ा हो गया। राजा उस मृग को देखकर चकित रह गया। इतने में कोमल वाणी में वह बोल उठा, ‘राजन आप प्रतिदिन वन में जाकर जीवों का शिकार करते हैं। मेरे शरीर के भीतर कस्तूरी का भंडार है। आप इस भंडार को ले लें और वन के प्राणियों का शिकार करना छोड़ दें।’ राजा विस्मय से बोला, ‘तुम जानते हो, कस्तूरी पाने के लिए मुझे तुम्हारा वध करना होगा।’ मृग बोला, ‘राजन आप मुझे मारकर कस्तूरी का भंडार ले लीजिए परंतु निरपराध जीवों का वध करना छोड़ दीजिए।’ राजा ने पुनः कहा, ‘तुम्हारा शरीर बहुत सुंदर है।’ मृग ने जवाब दिया, ‘राजन यह शरीर तो नश्वर है। मैं दूसरों के प्राण बचाने के लिए मर जाऊं, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।’
मृग की ज्ञान भरी वाणी ने राजा के मन में वैराग्य का प्रकाश पैदा कर दिया। वह सोचने लगा कि यह जानवर होकर भी दूसरों के लिए अपने प्राण दे रहा है और मैं मनुष्य होकर रोज-रोज जीवों को मारता हूं। धिक्कार है मुझ पर! उस दिन से राजा जीवों की हिंसा छोड़कर प्राणी मात्र पर दया करने लगा।

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