- किशन भावनानी
आज वैश्विक स्तर पर अगर हम मनुष्य प्रवृत्ति देखें तो सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक आर्थिक, पारिवारिक इत्यादि अनेक क्षेत्रों में अधिकतर व्यक्तियों में मैं का भाव अधिक देखने को मिलता है। जो सोचते हैं कि अगर मैं नहीं होता तो ये काम नहीं होता या होता भी तो मैं ही कर सकता था और ये तो मेरे कारण ही हो रहा है। ऐसा भाव अधिकतर मनुष्यों में होता है। यही उनकी असफलता, आपस में फूट, विभाजन व परेशानियों का कारण बनता है। हम उपरोक्त हर क्षेत्र में देखते हैंं कि ऐसी प्रवृत्ति मिलती ही है। अगर ये मनुष्य की प्रवृत्ति समाप्त हो गई तो फिर जीवन एक अलौकिक सुखों से भरपूर हो जाता है।
दूसरी बात मेरी प्रतिभा प्रवृत्ति - मनुष्य को अपनी प्रतिभा पर बहुत गर्व होता है कि ये सब मेरी प्रतिभा के कारण हो रहा है, हालांकि प्रतिभा हर व्यक्ति का वह हथियार होता है जो की उसे भगवान द्वारा अनूठा उपहार के रूप में मिला है। इस दुनिया में हर व्यक्ति के अंदर कुछ न कुछ टैलेंट जरूर होता है। इसीलिए जिसमें से कुछ लोगों को तो अपने टैलेंट के बारे में पता लग जाता है और कुछ लोग अपने टैलेंट को नहीं पहचान पाते। कुछ लोगों को अपनी प्रतिभा को पहचानने में थोड़ा समय लगता है। प्रतिभा हमें जन्मजात प्राप्त होती है और हर व्यक्ति में एक अलग ही अपना-अपना टैलेंट होता है प्रतिभा का मतलब है की आप मनुष्य की वह स्थिति जिस स्थिति में वह अन्य लोगों के मुकाबले अधिक ज्यादा जानता हो या फिर कोई ऐसा अनूठा काम जो अन्य लोगों को करने के लिए या तो अलग से सीखना पड़ता है या फिर अलग से उस काम में कौशलता प्राप्त करनी पड़ती है। आसान भाषा में प्रतिभा आपकी नौसर्गिक प्रतिभाएं आपके व्यक्तित्व और पहचान का स्वाभाविक हिस्सा है और यह हमें व्यवसाय/नौकरी, शिक्षा, या जीवन के अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करती है। परंतु मनुष्य अपनी प्रतिभा को अपना गुरूर जो उसके विनाश का कारण बनता है और असफलताएं और परेशानियों के कारण उसका अंत होता है।यदि यह प्रवृत्ति निकल जाए और मालिक द्वारा बख्शी प्रतिभा का भाव आ जाए तो हमारा जीवन सफल हो जाएगा। तीसरी बात - मेरा नेतृत्व सर्वोपरि - अधिकतर व्यक्तियों को ऐसा लगता है कि मेरा नेतृत्व सर्वोपरि है बस उनके आगे सब शून्य है। ये हमे उपरोक्त सभी क्षेत्रों में अक्सर दिख जाता है। अधिकतर व्यक्ति मेन आदमी बनकर नेतृत्व करना चाहते हैं कि मैं जैसा कहूं वैसा ही हो या मै सबका एक ग्रुप लीडर और सर्वेसर्वा बनू और जैसा मैं बोलू मेरे साथी सब वैसा ही करें, यह हमें सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक क्षेत्रों में बहुत देखने को मिलता है।
कहने का भाव यह है कि अधिकतर व्यक्तियों की उपरोक्त तीनों भाव उसके स्वार्थ से समाए होते हैं। उपरोक्त तीनों स्थितियों में कहीं ना कहीं स्वार्थ का भाव छिपा होता है और स्वार्थ ही उपरोक्त मनुष्य की तीनों विकार प्रवृत्ति की जड़ है। इस संदर्भ में विकास यह धारणा है कि समय बीतने पर एक संगठन अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अधिक प्रभावी बन सकता है। संगठनात्मक विकास एक प्रणाली-स्तरीय अनुप्रयोग और रणनीतियों, संरचना और प्रक्रिया के नियोजित विकास, सुधार और पुनर्प्रवर्तन की ओर व्यवहारात्मक शास्र के ज्ञान का स्थानांतरण है, जिसका परिणाम संगठन की प्रभाव कारिता के रूप में मिलता है परंतु वर्तमान परिवेश में हम देखते हैं कि निस्वार्थ संगठित सेवा के लिए परिभाषित राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आध्यात्मिक, शैक्षणिक, पारिवारिक, सामाजिक सहित अन्य क्षेत्रों में भी कुछ हद तक व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नेतृत्व करने की होड़ लग गई है। अतः उस आदमी का जीना या मरना अर्थहीन है जो अपने स्वार्थ के लिए जीता या मरता है।हमें दूसरों के लिए निस्वार्थ संगठनात्मक विकास द्वारा कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि मरने के बाद भी लोग हमें याद रखें। इससे हमारे अंदर से मृत्यु का भय चला जाता है। वाणी में भी आया है कि - वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
आज वैश्विक स्तर पर अगर हम मनुष्य प्रवृत्ति देखें तो सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षणिक आर्थिक, पारिवारिक इत्यादि अनेक क्षेत्रों में अधिकतर व्यक्तियों में मैं का भाव अधिक देखने को मिलता है। जो सोचते हैं कि अगर मैं नहीं होता तो ये काम नहीं होता या होता भी तो मैं ही कर सकता था और ये तो मेरे कारण ही हो रहा है। ऐसा भाव अधिकतर मनुष्यों में होता है। यही उनकी असफलता, आपस में फूट, विभाजन व परेशानियों का कारण बनता है। हम उपरोक्त हर क्षेत्र में देखते हैंं कि ऐसी प्रवृत्ति मिलती ही है। अगर ये मनुष्य की प्रवृत्ति समाप्त हो गई तो फिर जीवन एक अलौकिक सुखों से भरपूर हो जाता है।

- कर विशेषज्ञ गोंदिया (महाराष्ट्र)।
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