किसानों के लिए पंडित नेहरू से भिड़ने वाले चौधरी चरण सिंह कैसे पीएम  की कुर्सी तक पहुंचे

 यूं ही नहीं किसानों का मसीहा कहा गया. आजादी के पहले ही वो किसानों की आवाज बन चुके थे

जाट नेता का संबोधन करता था खिन्न चौ.चरण सिंह  को 

 मेरठ। देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को यूं ही नहीं किसानों का मसीहा कहा गया। आजादी के पहले ही वो किसानों की आवाज बन चुके थे। किसानों के मुद्दे पर तो वो पंडित नेहरू से भी टकरा गए थे। वे ईमानदार और सख्त प्रशासक थे। दो चेतावनियों के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश में 27 हजार पटवारियों की नौकरी से छुट्टी कर दी थी। अटल सरकार ने उनके जन्मदिन को किसान दिवस के रूप में मनाए जाने की शुरुआत की। 

चौधरी चरण सिंह एक काबिल राजनेता थे। किसान हितों के सशक्त पैरोकार थे और उनसे जुड़े सवालों पर वह पंडित नेहरू तक से टकरा गए। वे ईमानदार और सख्त प्रशासक थे। राज-काज के सुचारू संचालन के लिए अलोकप्रिय फैसलों से भी उन्होंने परहेज नहीं किया। दो बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्होंने संभाली। प्रधानमंत्री भी बने। लेकिन इन दो सबसे बड़ी कुर्सियों पर उनके पहुंचने के जिक्र के साथ याद किया जाता है कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्होंने दल-बदल का सहारा लिया।

प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए जनता पार्टी तोड़ी। याद यह भी किया जाता है कि देश के वे अकेले प्रधानमंत्री थे,जिन्हें सदन का सामना करने का अवसर नहीं मिला। लेकिन ऐसे कुछ विवादों के बाद भी अपनी योग्यता और किसानों के बीच अपनी व्यापक लोकप्रियता के कारण देश के राजनीतिक परिदृश्य में वे प्रासंगिक बने रहे। मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से मरणोपरांत विभूषित किया। अटल सरकार ने उनके जन्मदिन को किसान दिवस के रूप में मनाए जाने की शुरुआत की।



जाट नेता का संबोधन करता था खिन्न

चौधरी चरण सिंह को जाटों के बीच उनकी पकड़ और पैठ के लिए याद किया जाता है। लेकिन अपने जीवनकाल में जाट नेता के तौर पर संबोधन उन्हें खिन्न करता था। एक किसान नेता के तौर पर अपनी पहचान का वे खुद को हकदार मानते थे। असलियत में स्वतंत्रता के पूर्व से ही वे किसानों के पक्ष में बोलते रहे। जाहिर है कि जब वे किसान हितों की बात करते थे, तो उसमें जाति भेद की गुंजाइश नहीं थी।



 पहले नेता रहे जिन्होंने नौकरियों में आरक्षण की मांग की 

वे पहले नेता थे जिन्होंने नौकरियों में जिस आरक्षण की मांग की वह जाति अथवा मजहब आधारित नहीं था। 1939 और 1947 में कांग्रेस विधानमंडल के सामने उन्होंने किसानों और उनके आश्रितों के लिए सार्वजनिक नौकरियों में पचास फीसद स्थान आरक्षित किये जाने का प्रस्ताव रखा। भूमि उपयोग बिल का उन्होंने प्रारूप तैयार किया जिसमें व्यवस्था थी कि लगान का दस गुना जमा करने वाले जोतदारों अथवा काश्तकारों को उनके द्वारा जोती जा रही भूमि सौंप दी जाए।

जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध आजादी के पहले से ही वे लिखते और बोलते रहे। 1945 में कलकत्ता में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्य समिति ने पार्टी का जो घोषणापत्र अनुमोदित किया उसमें भूमि और कृषि से जुड़ी योजनाओं और आश्वासनों के शिल्पी चरण सिंह थे। उत्तर प्रदेश में अपनी सोच को कार्यरूप देने का उन्हें आजादी के बाद अवसर मिला। राज्य में कृषि से जुड़े दो महत्वपूर्ण कानून उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन अधिनियम तथा चकबंदी अधिनियम के निर्माण में उनकी अग्रणी भूमिका थी।

सहकारी खेती के विरोध ने नेहरू को किया नाराज

1959 में नागपुर में कांग्रेस के 64वें अधिवेशन में चरण सिंह ने सहकारी खेती के विरुद्ध एक लम्बा आक्रामक लेकिन बहुत तर्कसंगत भाषण दिया, जिसमें उन्होंने सहकारी खेती को एक व्यवस्था के तौर पर, भारतीय स्थितियों के पूरी तरह प्रतिकूल बताया। उनके इस विरोध ने पंडित नेहरू को नाराज कर दिया था। चौधरी साहब के विरोध का आधार था कि भारत में किसान कितना भी छोटा हो वह अपने खेत को मां जैसा प्यार करता है. वह कभी स्वीकार नहीं करेगा कि यह खेत उस समिति का हो जाये जिसमे उसकी हैसियत सिर्फ सदस्य की होगी।

चरण सिंह के विरोध के बाद भी यह प्रस्ताव पास हो गया था। चरण सिंह को प्रतिक्रियावादी माना गया। कृषि और आर्थिक नीतियों के सवाल पर कांग्रेस से उनके मतभेद बढ़ते गए . पार्टी के भीतर उन पर प्रगतिशील न होने के आरोप लगे।बाद में सोवियत रूस और कम्युनिस्ट चीन में सहकारी खेती की असफलता ने चरण सिंह की दूरदृष्टि और अपने देश की खेती – किसानी के प्रति उनकी समझ को सही साबित किया।

दल-बदल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचाया

23 दिसम्बर 1902 को मेरठ के नूरपुर गांव में जन्मे चरण सिंह जीवन भर खेती-किसानी से जुड़े सवालों को लेकर मुखर रहे। बेशक खुद उन्होंने खेती कभी नहीं की लेकिन किसानों की जरूरतों,समस्याओं और आकांक्षाओं की उन्हें गहरी समझ थी। 1929 में वे कांग्रेस में शामिल हुए। आजादी की लड़ाई में अनेक जेल यात्राएं कीं। 1937 में पहली बार छपरौली से विधायक चुने गए। अगले 30 साल उत्तर प्रदेश विधानसभा में संसदीय सचिव से लेकर कैबिनेट के एक महत्वपूर्ण मंत्री तक की भूमिकाओं का उन्होंने सफल निर्वहन किया। लेकिन हर राजनेता की तरह वे भी शिखर पर पहुंचना चाहते थे। यह अवसर उन्हें 1967 में प्राप्त हुआ।

इस चुनाव में 425 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस के 199 सदस्य थे। विपक्ष ने निर्दलीय राम चंद्र विकल के नेतृत्व में सरकार बनाने की असफल कोशिश की। इस बीच चंद्रभानु गुप्त के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार गठित हो गई। इस समय तक गुप्त और कांग्रेस से चरण सिंह के मतभेद काफी बढ़ चुके थे। 1अप्रैल 1967 को सदन की कार्यवाही के दौरान ही चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर दी। कांग्रेस के कुछ अन्य विधायकों ने उनका साथ दिया।दो दिन बाद चरण सिंह ने मुख्यमंत्री की शपथ ग्रहण की। जनसंघ, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट, निर्दलीय सहित सभी गैरकांग्रेसी विधायकों का इस सरकार को समर्थन था। 

इस अल्पजीवी सरकार की अगुवाई करते केंद्र से चरण सिंह के टकराव का प्रमुख मुद्दा अनाज की खरीद नीति को लेकर था। 1969 के राज्य विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में चरण सिंह के नेतृत्व वाला भारतीय क्रांतिदल मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरा। यही वर्ष था जब कांग्रेस का ऐतिहासिक विभाजन हुआ। 1970 में चरण सिंह को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ. इस साझा सरकार को कांग्रेस के इंदिरा गांधी की अगुवाई वाले धड़े का समर्थन था।

इमरजेंसी के नतीजों के लिए इंदिरा को किया सचेत

1974 में उन्होंने लोकदल का गठन किया। उनकी अपनी पार्टी भारतीय क्रान्ति दल के साथ स्वतंत्र पार्टी, सयुंक्त सोशलिस्ट पार्टी, उत्कल पार्टी, राष्ट्रीय लोकतंत्र दल, किसान मजदूर पार्टी और पंजाबी खेतीबाड़ी जमींदारी यूनियन के विलय से तैयार इस दल ने राष्ट्रीय राजनीति में चरण सिंह के प्रवेश की आधार भूमि तैयार की। अन्य विपक्षी नेताओं की तरह वे भी आपातकाल में जेल में रहे। जेल से रिहा होने के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में अपने लंबे भाषण में उन्होंने इंदिरा सरकार की तानाशाही की कड़ी आलोचना करते हुए सचेत किया था कि बॉयलर में भाप इकट्ठा की गई है और आप सोचते हैं कि कुछ नहीं होगा ! कुछ तो होगा! विस्फोट तय है. 1977 के चुनाव के ऐलान के बाद इंदिरा गांधी ने चरण सिंह को साथ लेने की कोशिश की थी. लेकिन उन्होंने इसे दरकिनार करते हुए कांग्रेस विरोधी दलों को साथ लाने की मुहिम से खुद को जोड़ लिया था।

जनता पार्टी चुनाव लड़ी लोकदल के सिंबल पर

इमरजेंसी की ज्यादतियों के खिलाफ संघर्ष के लिए विभिन्न गैरकांग्रेसी दलों के विलय से तैयार जनता पार्टी में चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाला लोकदल भी शामिल था। बहुत कम समय में गठित जनता पार्टी ने लोकदल के सिंबल हलधर किसान के साथ यह चुनाव लड़ा था। 1977 की जनता लहर में उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था। जनता पार्टी की सरकार की अगुवाई के लिए मोरारजी देसाई और जगजीवन राम के साथ ही चौधरी चरण सिंह की भी दावेदारी थी। लेकिन प्रधानमंत्री पद के लिए स्थितियां उनके अनुकूल नहीं थीं। समीकरण जगजीवन राम के अनुकूल बन रहे थे।

दिलचस्प है कि इमरजेंसी के दौरान जगजीवन राम इंदिरा गांधी सरकार में बने रहे थे। चुनावों के ऐलान के बाद उन्होंने पाला बदला था। यद्यपि चरण सिंह को मोरारजी भी इस पद के लिए स्वीकार नहीं थे लेकिन जगजीवन राम के प्रति उनका विरोध अधिक प्रबल था। आखिरी मौके पर चरण सिंह ने मोरारजी का पक्ष लिया। जगजीवन राम का रास्ता उन्होंने रोक दिया।हालांकि सरकार में उपप्रधानमंत्री रहते चरण सिंह की मोरारजी से कभी नहीं पटी।

मोरारजी सरकार से छुट्टी लेकिन फिर वापसी

जनता पार्टी सरकार में उनकी भागीदारी दो चरणों में रही। पहली बार उपप्रधानमंत्री के साथ ही गृहमंत्री की जिम्मेदारी उन्हें मिली। इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के उनके फैसले से मोरारजी और अन्य सहयोगी सहमत नहीं थे। लेकिन चरण सिंह अड़े रहे। उनके इस कदम से सरकार की काफी किरकिरी हुई। मोरारजी से उनके मतभेद लगातार बढ़ते गए। वे उन्हें चिट्ठियां लिखने के साथ ही उसे प्रेस को भी मुहैय्या करते रहे, जिससे सरकार की काफी किरकिरी हुई। मोरारजी ने 1जुलाई 1978 को मंत्रिमंडल से उनकी छुट्टी कर दी। लेकिन सिर्फ 22 दिन के अंतराल पर चरण सिंह के 76 वें जन्मदिन के मौके पर दिल्ली के वोट क्लब पर उमड़े किसानों के सैलाब ने संदेश दिया कि उनके नेता को हल्के में न लिया जाए।

अब नजर शिखर पर, राजनारायण बने हनुमान

वे एक बार फिर सरकार में थे लेकिन अब उनकी नजर शिखर पर थी. उन दिनों समाजवादी नेता राजनारायण उनके हनुमान थे। मंत्रिमंडल से उनकी भी छुट्टी हुई थी और मोरारजी किसी कीमत पर उनकी वापसी के लिए तैयार नहीं थे। राजनारायण की चुनाव याचिका पर इंदिरा गांधी का 1971 का रायबरेली से निर्वाचन रद्द हुआ था। यह अदालती निर्णय 1975 की इमरजेंसी की एक वजह बना था। 1977 में राजनारायण ने ही रायबरेली में इंदिरा गांधी को परास्त किया था। लेकिन अब मोरारजी को कुर्सी से बेदखल करने की राजनारायण की जिद थी।

जनता पार्टी को बिखराने में चौ. चरण सिंह की अहम भूमिका रही 

संजय गांधी से उनके तार जुड़े हुए थे। चरण सिंह में प्रधानमंत्री पद की चाहत वे जगा चुके थे। शर्त जनता पार्टी को तोड़ने की थी। चरण सिंह 76 सांसदों के साथ जनता पार्टी से अलग हुए। कांग्रेस ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। 28 जुलाई 1979 को चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। 20 अगस्त तक उन्हें बहुमत साबित करना था। इंदिरा-संजय का काम पूरा हो चुका था। जनता पार्टी बिखर चुकी थी। 19 अगस्त को कांग्रेस ने चरण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। एक ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर चौधरी चरण सिंह का नाम दर्ज है, जिन्हें सदन का सामना करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। अगली दो लोकसभा में वे विपक्षी बेंच पर थे। यह उनके राजनीतिक जीवन का अवसान काल था. 29 मई 1987 को उनका निधन हुआ। 

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