शिक्षा व राजनीति का लिव इन रिलेशन

- डा. वरिंदर भाटिया

स्कूल शिक्षा हो या फिर उच्च शिक्षा, राजनीति का इन पवित्र क्षेत्रों में दखल बिल्कुल भी रुका नहीं है। बड़ी शैक्षणिक नियुक्तियों का आधार चुने जाने वाले व्यक्तियों की राजनीतिक संबद्धता और राजनीतिक फायदा ही है। इससे शिक्षा और शैक्षणिक प्रशासन की गुणवत्ता पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ रहा है। और तो और, इन बिंदुओं पर आवाज उठाने वाले को चारों खाने चित होना पड़ता है। आइए शिक्षा और राजनीति के लिव इन रिश्ते को खंगालें। शिक्षा और राजनीति का गहरा संबंध होता है।
शिक्षा और राजनीति, दोनों ही समाज के महत्वपूर्ण पहलू हैं। शिक्षा व्यक्ति को ज्ञान और कौशल प्रदान करती है, जबकि राजनीति, समाज का नेतृत्व करती है। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शिक्षा के संबंध में राजनीति और राजनीतिकरण के बीच अंतर है। कोई भी राजनीति से अछूता नहीं रह सकता और कोई भी संस्था चाहे वह शैक्षणिक हो या सामाजिक या सांस्कृतिक, राजनीति से अलग नहीं हो सकती। स्कूल, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय कहां स्थापित होगा एवं किस संस्था को आर्थिक सहायता मिलेगी आदि शिक्षा राजनीति है। शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों के सभी स्तरों पर काम में सत्ता के खेल को समझने के लिए छात्रों और शिक्षकों में राजनीतिक जागरूकता आवश्यक है। भारत में शिक्षा का राजनीतिकरण एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है। इसे राजनीतिक लाभ के लिए शिक्षा में हेरफेर के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

यह कई रूप ले सकता है, जिसमें किसी विशेष विचारधारा को बढ़ावा देने, असहमति को शांत करने या शैक्षणिक संस्थानों पर नियंत्रण हासिल करने के लिए शिक्षा का उपयोग शामिल है। भारत में शिक्षा का राजनीतिकरण भाषा के मुद्दे के माध्यम से किया गया है। देश विभिन्न प्रकार की भाषाओं का घर है और इस बात पर लंबे समय से बहस चल रही है कि स्कूलों में शिक्षा का माध्यम कौनसी भाषा होनी चाहिए। कुछ समूहों ने तर्क दिया है कि राष्ट्र भाषा हिंदी शिक्षा का एकमात्र माध्यम होनी चाहिए, जबकि अन्य ने तर्क दिया है कि क्षेत्रीय भाषाओं को समान दर्जा दिया जाना चाहिए। यह बहस भी गरमा गई है और इसका राजनीतिकरण भी हुआ है और इसका भारत में शिक्षा प्रणाली पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। इन दो प्रमुख मुद्दों के अलावा, भारत में कई अन्य कारकों, जैसे जाति व्यवस्था, समाज में महिलाओं की भूमिका और देश के आर्थिक विकास के माध्यम से भी शिक्षा का राजनीतिकरण किया गया है।


राजनीतिकरण का तात्पर्य संस्थानों के मामलों में राजनीतिक विचारधाराओं के हस्तक्षेप से है, विशेषकर सत्तारूढ़ और प्रमुख राजनीतिक शक्ति द्वारा। इस तरह के किसी भी हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप शासन, पाठ्यक्रम डिजाइन आदि जैसे संस्थानों के मामलों पर एक विशेष राजनीतिक स्थिति को जबरदस्ती थोप दिया जाता है। इसलिए राजनीतिकरण के परिणामस्वरूप विनम्र, गैर-आलोचनात्मक छात्र पैदा होंगे जो पीडि़त होने के डर से शक्तिशाली विचारधाराओं पर सवाल नहीं उठा सकते हैं। शिक्षा का राजनीतिकरण शासक वर्ग के हाथों में संस्थागत मशीनरी के माध्यम से लोगों पर अपने विचार थोपने का एक उपकरण रहा है। चाहे वह पाठ्य पुस्तक संशोधन हो या वित्त पोषण से संबंधित मामले, शिक्षा का राजनीतिकरण शैक्षिक प्रथाओं के समग्र स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। राजनीति का शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। सरकारें अक्सर पाठ्यक्रम में बदलाव करके अपने राजनीतिक विचारों को प्रचारित करती हैं। सरकारें शिक्षण संस्थानों पर नियंत्रण करके कुलपतियों, शिक्षकों की नियुक्ति और शोध के विषयों को प्रभावित करती हैं। सरकारें शिक्षण संस्थानों को फंडिंग देकर उनके कामकाज को प्रभावित करती हैं।

राजनीतिक दल अक्सर छात्र संगठनों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। शिक्षा का भी राजनीति पर प्रभाव पड़ता है। शिक्षित मतदाता अधिक जागरूक होते हैं और वे अपने मतदान का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग करते हैं। शिक्षित लोग अक्सर अच्छे नेता बनते हैं। शिक्षा समाज में परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा का राजनीतिकरण तब होता है जब शिक्षा को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह शिक्षा की गुणवत्ता को कम करता है और छात्रों को राजनीतिक मतभेदों में फंसा देता है। शिक्षा के राजनीतिकरण के परिणाम के कारण शैक्षणिक स्वतंत्रता में कमी हो जाती है। शिक्षक और छात्र अपने विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने में हिचकिचाते हैं। शिक्षा का ध्यान गुणवत्ता से हटकर राजनीतिक एजेंडे पर केंद्रित हो जाता है। छात्र राजनीतिक दलों के साथ जुड़ जाते हैं और एक-दूसरे के खिलाफ हो जाते हैं। शिक्षा और राजनीति के बीच एक संतुलन बनाए रखना बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा में राजनीति का बढ़ता दखल एक बहस का विषय है। कुछ लोग इसे सकारात्मक मानते हैं, जबकि कुछ इसे नकारात्मक मानते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि राजनीति का हस्तक्षेप शिक्षा के प्रबंधन में सहायक हो सकता है।
उचित राजनीतिक नेतृत्व के माध्यम से, सरकार शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधार कर सकती है, जैसे कि नई शिक्षा नीति 2020 इत्यादि। हालांकि, कुछ लोग मानते हैं कि राजनीति का हस्तक्षेप उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को खतरे में डालता है। महत्वपूर्ण है कि हम सही संतुलन को प्राप्त करें, जहां सरकारी प्रबंधन और समर्थन महत्वपूर्ण हो, परंतु संस्थाओं को समुचित स्वतंत्रता मिले। शिक्षा और राजनीति के बीच एक जोडऩे वाला सेतु है। शिक्षा ज्ञान का सबसे निकटतम सहयोगी हो सकता है। शिक्षा की प्राथमिक भूमिका एक छात्र के पढऩे, समझ और समझ में सुधार के माध्यम से शिक्षित करना ही है।

कभी पेड़ों के नीचे जमीन पर बैठकर शिक्षा ग्रहण करते छात्र, कभी तख्ती पर इमला लिखते छात्र और कभी अपने हाथों पर अध्यापकों से डंडे खाते छात्र, शिक्षा की पवित्रता, गुणवत्ता और महत्ता को दर्शाते थे। तब बैठने को सुविधाजनक डेस्क न सही, स्मार्ट क्लासरूम न सही, पर शिक्षा सौ फीसदी खरी थी। तब विद्यालय से निकलने वाला छात्र सोने की तरह तप कर खरा निकलता था। छात्र-शिक्षक का रिश्ता मर्यादा और अपनेपन का आभास लिए एक सुखद एहसास करवाता था। अब वक्त ने सब बदल दिया है। आज की शिक्षा वह शिक्षा नहीं है जो संस्कृति और सभ्यता को साथ लेकर चलती थी। किसी भी लोकतांत्रिक देश में शिक्षा, राजनीति से अलग नहीं हो सकती है।


इस बात में कोई दो राय नहीं कि शिक्षा का राजनीति से गहरा संबंध है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले देश के शीर्ष नेताओं- गांधी, टैगोर, जाकिर हुसैन जैसी शख्सियत, शिक्षा से संबंधित मुद्दों पर बोलते थे, लिखते थे और संस्थानों के निर्माण में अपनी भूमिका निभाते थे। यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद चोटी के नेताओं ने शिक्षा के मुद्दों से एक दूरी बना ली और न ही यह पुराने नेताओं की इतनी काबीलियत रखते हैं। अब शिक्षा सिर्फ राजनीति करने का सुलभ मंच और प्रभावी माध्यम बन गई है। क्या इस रिश्ते को कभी संतुलित किया जा सकेगा।

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