बिहार चुनाव की चौसर और जातियों की बाजी

- प्रो. नंदलाल
बिहार में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। बिसातें बिछ रही हैं। कोई भी पैंतरेबाजी छूट नहीं रही है। सभी दल अपना बौद्धिक व छद्म खेल शुरू कर चुके हैं। कोई किसी को कोस रहा तो कोई गले मिल रहा, किसी को मुख्यमंत्री बनने की चिंता, तो किसी को मुख्यमंत्री बनाने की चिंता, कोई खेल बिगाड़ने में पागल तो कोई धमकाने में माहिर। विधायक बनने की चिंता तो सभी को है।

एक बात तो सभी को समझ लेनी चाहिए कि बिहार की राजनैतिक चेतना पूरे भारत वर्ष से अलग अदभुत और बेजोड़ है।अभी तक लोग उत्तर प्रदेश को इस खेल में सबसे आगे मान रहे थे लेकिन अब यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत का कोई भी राज्य बिहार की बराबरी नहीं कर सकता जहां राजनीति और पैत्रेबाजी बच्चे बच्चे के खून में घुल चुका है।परिणाम क्या होगा इसकी भविष्यवाणी अभी करना थोड़ा दुरूह है पर बिसात अच्छी तरह बिछ गई है।प्रशांत किशोर बिहार को नख शिख बदलने का खाका बना चुके हैं तो तेजस्वी यादव एम वाई को लेकर मुख्यमंत्री बनने का सपना सजोए हैं।कांग्रेस को अपने को वहां पुनर्जीवित करना है तो नीतीश जी को मुख्यमंत्री की कुर्सी के अलावा कुछ दिख ही नहीं रहा है। मांझी जी अपनी नाव लेकर बिहार के चुनावी वैतरणी में निकल चुके हैं तो उपेन्द्र कुशवाहा अब भी शिकहर टूटने का ख्वाब पाले हैं।पाले भी क्यों नहीं जब एक निर्दलीय व्यक्ति मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह तो कम से कम छह सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं।
       
चिराग पासवान पिता की अधूरी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए सभी प्रकार की चाले चल रहे हैं तो भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में अपनी पताका फहराने के लिए बेचैन है।उसके कब्जे में अभी तक बिहार नहीं आ सका है इसलिए उसकी इच्छा बिहार को कब्जे में लेने की है।कभी फेल न होने वाली रणनीति के साथ गृहमंत्री अमित शाह जी अबकी बार हर हालत में वहां सरकार बनाने की जुगत में हैं।तो मुकेश सहनी उप मुख्यमंत्री की कुर्सी चाह रहे हैं। वाह रे बिहारी चुनाव!तूने अबकी बार गजब कर दिया।कोई दस हजार रुपया देने का ऐलान कर रहा है तो कोई वादा कर रहा है कि हर घर में सरकारी नौकरी देंगे।कोई बोरा लेकर राशन बांट रहा है तो कोई जमीन का पट्टा दे रहा है।कोई मतदाता को हराम खोर कह रहा है तो कोई भगवान कह रहा है।बीच बीच में टॉर्च जैसा माइक लिए पत्रकार लोगो के हलक में माइक डालकर कुछ निकलवाना चाह रहे हैं तो कही पर चुनाव का चौसर ही बिछ गया है।
     

बिहार में एक सामान्य वर्ग है जिसको कोई नहीं पूछ रहा है।पंडित लोग बाट निहार रहे हैं कि उनके पास भी कोई वोट मांगने आ जाए तो उनकी इच्छा  बाहर आए वे मन ही मन बुदबुदा रहे हैं तो क्षत्रिय समाज अपने को कोस रहा है कि कहां से आकर बिहार में बस गए उन्हें तो कोई पूछ ही नहीं रहा।बचे भूमिहार लोग तो वे तो न नौ में न तेरह में।फिर भी भूमिहारों की बुद्धिमत्ता को कौन नहीं जानता।वे चौसर खिलाने ही बैठ गए हैं और दांव लगाने वालों से कुछ अपने लिए भी कीमत वसूल ले रहे हैं।सो भूमिहारों की तो बल्ले बल्ले है। हरे न फिटकरी रंग चोखा।इस तरह सामान्य जातियां तो मजबूर है कि वोट देने की रस्म अदायगी तो करनी ही पड़ेगी पर उन्हें पूछता कोई नहीं।शेष जातियों की तो चांदी है।वास्तव में बिहार का चुनाव पिछड़े, और दलित जातियों पर ही टिका है और इनके अंदरूनी कड़ुआहटों के कारण यह जटिल हो गया है।यह जटिलता इन जातियों को बर्बाद कर देगी।आने वाले समय में ये चिराग और पशुपति की तरह दिखेंगे।कोई यह समझता हो कि आजचिराग ताकतवर हैं और पशुपति कमजोर तो ऐसा नहीं है।ये दोनों ही कमजोर हैं और आज की राजनीति यही चाहती भी है कि ये कमजोर रहें।तेजस्वी और तेजप्रताप भी कमजोर हैं।मांझी और कुशवाहा अपने समाज से कट गए हैं कारण कि इन्हें समाज की नहीं रिश्तेदारों की चिंता है।ऐसे में प्रशांत किशोर ने जबरदस्त दांव खेला है और प्रशांत किशोर की भूमिका को कमतर करके आंकना ठीक नहीं होगा।यही स्पेस तो खाली था जिसको प्रशांत किशोर ने भर दिया है।उन्हें सफलता मिले या न मिले उन्होंने अपने आप को भारतीय राजनीति में स्थापित कर लिया।
बिहार के ब्राह्मणों को प्रशांत के रूप में एक नेता मिल गया है।अन्य राज्यों में यह रिक्त है।राष्ट्रीय स्तर पर ब्राह्मणों को,क्षत्रियों को और भूमिहारों को एक अदद अच्छे छवि वाले नेता की तलाश है जो जातिगत खाई को पाट सके और समूचे समाज को उचित रास्ते पर ले चले।जिस नेता की अपनी कोई जमीन नहीं वह भी जाति की राजनीति करता है।अपशब्द बोलता है।हिंदू धर्म का अनादर और अपमान करता है।हमारे वेदों को पुराणों को उपनिषदों को रामचरित मानस को श्रीमद्भगवद्गीता को फाड़ता है और उनकी प्रतियों को जलाता है।यह क्या है।यह मानसिक दिवालियापन है,वहशीपन है, मानसिक विकृति है जो उनके मन को कुंठित करके रख दी है।कबीर ने रैदास ने सूफी संतों ने रहीम ने जिस रास्ते को दिखाया क्या उस तरह का कोई संत आज समाज में दिखाई पड़ता है।


        बिहार के इस चुनाव में चौसर पर भिन्न भिन्न जातियां लगी हैं।विशेषकर पिछड़ी और दलित जातियां जो एक स्वर में सवर्णों को अपशब्द और न जाने क्या क्या कहती हैं।एक नया नारा आया है जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी।क्या इसी तरह ये जातियां अपना हिस्सा लेंगी और क्या इनको कभी इनका हिस्सा मिल पाएगा।कभी नहीं।ये आपस में एक दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं।और फोड़ते रहेंगे।भारतीय लोकतंत्र अपने को यहीं बेबस पाता है कि ऐसे समाज से ही उसे प्रतिनिधि मिलना है जहां सिर फुटौवल के अतिरिक्त कुछ नहीं है।चिंता इस बात की है कि क्या भारतीय लोकतंत्र इससे कभी मुक्त हो सकेगा और संसद में गुणवान लोग पहुंच सकेंगे।या भारतीय लोकतंत्र ऐसे ही रहनुमाओं के सहारे धीरे धीरे रेंगता रहेगा।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट,सतना मप्र)

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