राजीव त्यागी
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। यह वृद्धि निचले इलाकों के लिए गंभीर खतरा बन चुकी है, क्योंकि इन झीलों के टूटने से बाढ़ जैसी आपदाएं आ सकती हैं। उच्च हिमालय में झीलों का यह विस्तार वैज्ञानिकों और प्रशासन दोनों के लिए गहरी चिंता का विषय बन गया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर झीलों का तेजी से विस्तार भविष्य में 2013 की केदारनाथ त्रासदी जैसी आपदाओं का कारण बन सकता है। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में 13 बेहद खतरनाक और 5 उच्च जोखिम वाली श्रेणी में हैं। कई झीलें मौसम व भौगोलिक कारणों से बनती-बिगड़ती रहती हैं। हाल ही में पिथौरागढ़ की दारमा घाटी में नई ग्लेशियर झील के आकार में वृद्धि दर्ज की गई है, जिसने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है। केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक अकेले अरुणाचल में 197 से ज्यादा ग्लेशियर झीलें हैं। ये अपना खतरनाक स्तर पर विस्तार कर रही हैं। इनके बाद लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, हिमाचल और उत्तराखंड में झीलें हैं। एनडीएमए ने उत्तराखंड की इन खतरनाक 13 झीलों को तीन श्रेणियों में बांटा है।
पिछले दिनों में गंगोत्री की केदारताल और चमोली में वसुतारा झील का काफी विस्तार हुआ है। इस खतरे को देखते हुए सरकारों और अन्य वैज्ञानिक संस्थानों को समय रहते इन झीलों का आकलन कर तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के दौरान चौराबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से हुई तबाही ने ग्लेशियर झीलों के खतरे को गंभीर मुद्दा बना दिया। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में लगभग 968 ग्लेशियर और कई हजार ग्लेशियर झीलें मौजूद हैं। इन झीलों में अत्यधिक बर्फ पिघलने से अक्सर बाढ़ का खतरा बना रहता है। इन झीलों का आकार तेजी से बढ़ रहा है, जिससे ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड की आशंका लगातार बनी रहती है।
हकीकत यह है कि मौसम के इस बदलते पैटर्न के बारे में बहुत कुछ समझना अभी भी बाकी है। इसलिए पिछले तकरीबन तीस सालों के आंकड़ों का गहनता से आकलन बेहद जरूरी है। आपदाओं के पूर्वानुमान को भी बेहतर बनाना समय की मांग है। यही नहीं, आर्यभट्ट प्रेक्षण एवं विज्ञान शोध संस्थान नैनीताल एवं दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा हिमालय के जटिल और प्राचीन भूभाग पर कार्बन युक्त एरोसोल के अध्ययन को नजरंदाज करना बहुत बड़ी चूक होगी। इन बढ़ते खतरों से निपटने की दिशा में हमें तत्काल कार्रवाई, फंडिंग के साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोग की भी बहुत जरूरत है। इसके अलावा हिमालय क्षेत्र में मानवीय दखलंदाजी पर अंकुश, जलवायु परिवर्तन के दानव और कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगानी ही होगी। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हिमालय की जल धाराएं मौन हो जाएंगी, हम बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे, खेत सूख जाएंगे, जमीन बंजर हो जाएगी।





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