नया संसद भवनः कुछ सवाल
नये संसद भवन का उद्घाटन यदि सभी राजनीतिक दलों की भागीदारी व सहमति से होता तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रेरक छवि उभरती। संसद देश के एक सौ चालीस करोड़ से अधिक लोगों के लिये लोकतंत्र का मंदिर है। उसकी शुचिता-गरिमा को बनाए रखना सभी राजनीतिक दलों का दायित्व भी है। सत्तापक्ष व विपक्ष को इसका ध्यान रखना होगा। प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत बनी नयी संसद के उद्घाटन को लेकर जिस तरह विवाद सामने आ रहे हैं, उसे भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। अब देश के उन्नीस राजनीतिक दलों ने नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है। बहिष्कार करने वाले दलों में कांग्रेस, आप, वाम दल आदि पार्टियां भी शामिल हैं। विपक्षी दलों की दलील है कि राष्ट्रपति के बिना संसद कार्य नहीं कर सकती। उनके बिना नये संसद भवन का उद्घाटन संविधान के पाठ और उसकी भावना का उल्लंघन है। उनकी दलील है कि भारत के संविधान के अनुसार संसद राष्ट्रपति और दोनों सदनों से मिलकर बनती है। दूसरी ओर संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी विपक्ष से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का आह्वान करते हुए विपक्ष द्वारा गैर मुद्दे को मुद्दा बनाने की बात कहते हैं। उनका मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष संसद के संरक्षक हैं। अध्यक्ष ने ही प्रधानमंत्री को उद्घाटन के लिये आमंत्रित किया है। दरअसल, विपक्ष आरोप लगाता रहा है कि प्रधानमंत्री इवेंट मैनेजमेंट के जरिये राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास में रहते हैं। वे अन्य लोगों को इसका मौका नहीं देते। कांग्रेस समेत विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि राष्ट्रपति इस देश की प्रमुख हैं। आदिवासी महिला होने के साथ संसद की संरक्षक भी हैं। उनके हाथों नये संसद भवन का उद्घाटन कराना प्रोटोकॉल का तकाजा भी है। प्रधानमंत्री के हाथों उद्घाटन से यह कार्यक्रम एक पॉलिटिकल इवेंट बन जायेगा। वहीं सरकार कहती है कि देश में बढ़ती आबादी के साथ नये लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन होता है तो उसके अनुरूप भविष्य में संसद में अधिक सांसदों के बैठने की जगह होनी चाहिए। ताकि संसद का कार्य सुचारू रूप से चल सके। नये लोकसभा भवन में इतनी जगह होगी कि दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाया जा सकेगा।
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