हड़ताल


- टीकेश्वर सिन्हा " गब्दीवाला "
 "पापा जी ! आज फिर आप ऑफिस नहीं जा रहे हैं ?" नन्ही सुम्मी ने सत्येन्द्र जी से कहा।
 "नहीं बेटा...!" सत्येन्द्र जी बोले।
 "क्यों पापा जी... तो फिर आज कहाँ जायेंगे ?" सुम्मी का नेक्स्ट् क्यूश्चन था।
 "नहीं जानती सुम्मी कहीं के ! अभी पापा जी हड़ताल पर हैं।" बिट्टू अपने जूते की लेस कसते हुए बोला।
 सत्येन्द्र जी को श्री रबीन्द्रनाथ टैगोर जी कहानी "काबुलीवाला" की मिनी याद आ गयी। कुछ नहीं बोल पाये; बस यूँ ही मुस्कुरा दिये। रमा ने किचन से सुम्मी और बिट्टू की बातें सुन ली। माथे का पसीना पोछते हुए निकली। थोड़ी हँसी; फिर बोली- "अपने पर हो रहे शोषण व अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना ही हड़ताल है। है ना...जी !" कुकर की सीटी सुनते ही फिर रमा किचन के अंदर चली गयी।
इस बार तो बिट्टू भी जानना चाहा- " पापा जी और आपके साथी लोग किनके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं ?"
 "हमारी अपनी सरकार।" रमा गैस बंद करके किचन से निकली।
 "हमारी अपनी सरकार...ऐं...!" सरकार तो आप ही लोग बनाये हैं न पापा जी...तो फिर ?" आज तो ऐसा लग रहा था कि बिट्टू अपने नॉलेज का सदुपयोग कर रहा है।



 "...तो आप लोग आप लोगों को ही हड़ताल करवाने वाली सरकार क्यों बनाते हैं ? अभी जस्ट इलेक्शन आने वाला है न...?" सुम्मी भी चुप न रही। इस बार तो सत्येन्द्र और रमा दोनों निरुत्तर थे। वे दोनों एक-दूसरे को देखते ही रह गये।
(व्याख्याता (अंग्रेजी), बालोद-छत्तीसगढ़)

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