- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
आजकल सीखने और सिखाने का पढ़ने और पढ़ाने से कोई लेना-देना नहीं है। दोनों का एक-दूसरे से छत्तीस का आंकड़ा है। सीखने-सिखाने और पढ़ने-पढ़ाने के लिए कॉपी, किताब, कलम और शिक्षकों की आवश्यकता नहीं है। यह सभी दकियानूसी अंधविश्वास हैं। बोलने के लिए मुँह और सुनने के लिए कान हैं तो काफी है। हमारे एक मित्र जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे अपने बच्चे के पूछने पर राष्ट्रीय चिह्नों के बारे में बता रहे थे। मैंने देखा कि वे राजभाषा के रूप में द्वंद्वार्थी भाषा, राष्ट्रीय ध्वज के रूप में डंडा एक झंडे अनेक, राष्ट्रीय पक्षी के रूप में चमगादड़, राष्ट्रीय पशु के रूप में गाय, राष्ट्रीय फूल के रूप में गोभी का फूल, राष्ट्रीय फल के रूप में नाशपति, राष्ट्रीय पेड़ के रूप में चने का झाड़, राष्ट्रीय गान के रूप में गोली मार भेजे में भेजा शोर करता है, राष्ट्रीय नदी के रूप में झूठ की नदी, राष्ट्रीय खेल के रूप में उठा पटक और राष्ट्रीय पंचांग के रूप में चुनावी वर्ष बताया। लड़के के पूछने पर कि देश को स्वतंत्रता कब मिली तो उन्होंने वर्ष 2014 बताया।  स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर वीरों में अक्षय कुमार और वीरांगना में कंगना रनौत की प्रशंसा की।



मैं यह सब सुन उसे डाँटने ही वाला था कि वह बोल पड़ा, खबरदार! जो तुमने मेरे ज्ञान पर उंगली उठाई। मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। हम भी टी.वी. देखते और सुनते हैं। तुम्हारी तरह हम भी देश के बारे में पल-पल की जानकारी रखते हैं। वह तो भला हो पद्मश्री सबला जी का, जो हम जैसे नासमझों को बड़ी सरलता से यह सब ज्ञान की बातें चुटकियों में बता देती हैं।
मैं कुछ कहता इससे पहले मेरा अंतर्मन कुमार कह उठा – भैया क्यों पड़ते हो इन सब पचड़े में। सुना नहीं आधुनिक दस्युकुमार वाल्मीकि जी क्या कहते हैं कि राम के साथ वनवास लक्ष्मण नहीं भरत गए थे। ज्यादा तीन-पाँच करोगे तो तुम्हें वन नहीं परलोक भेज दिया जाएगा। मैंने अपने मित्र से क्षमा माँगी और कहा – गलती से मिस्टेक हो गई। जो तुम कह रहे हो, वही सही हैं।            
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित व्यंग्यकार)

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