- सुरेन्द्र मलनिया
एडवर्ड जी ब्राउन ने भारत में दिए गए वर्ष 1890 के भाषण में कहा था कि "जब बगदाद के खलीफा और कार्दोव ने अपनी प्रजा के बीच तालीम पर जोर दे रहे थे, ताकि 12 वर्ष तक के सभी लड़के और लड़कियां लिखना-पढ़ना सीख जाएं, तो ठीक उसी समय यूरोप में उनकी ख्वातीन किसी भी तरह से केवल अपना नाम लिख पाती थीं।" तथापि मुसलमानों ने अपने को पन्द्रवीं शताब्दी के बाद तक तालीम से दूर रखा, जिसके परिणाम स्वरूप वैश्विक हलचल में उनका दबदबा खत्म हो गया। इस्लामिक दुनिया के सभी हिस्सों में तालीम की उपेक्षा हो गई। यहाँ तक कि 20वीं शताब्दी के मध्य तक स्थिति संतोषजनक भी नहीं थी। मिस्त्र, तुर्की और ईरान जैसे कुछ मुल्कों में ही साक्षरता 30 प्रतिशत से अधिक थी।
जबकि मुसलमानों ने कविता, संगीत, आदि क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य किया है, यूरोप से विकसित हो रही आधुनिक तालीम में उनकी रुचि बहुत ही कम थी तथा पूरी दुनियां के मुसलमानों की समझ में आ गया है कि बिना आधुनिक ज्ञान और ज्यादा तालीम प्राप्त किए उनका शोषण नहीं रुक सकता। अभी हाल ही में इस्लामिक दुनियां ने तालीम के तवज्जू को समझा है। इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है। यह एक बहुत बड़ी बिडम्बना है कि जिस मज़हब के पैगम्बर ने 'टूकरा (अध्ययन करना) के रूप में पहली आयत किया, उसके अनुयायी ही दुनिया भर में सर्वाधिक निरक्षर हैं।
इस्लामिक दुनियां में ज्ञान के सभी क्षेत्रों की उच्च तालीम पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वैश्विक साक्षरता दर (2017) 82 फीसद (पुरूष 87 फीसद, महिला 77 फीसद) है। फिर भी, भारतीय मुसलमानों को इसमें शामिल करते ही इसमें बहुत ज्यादा गिरावट आ जाती है। भारतीय मुसलमानों में बराबर रूप से 30-35 वर्ष के उम्र के नौजवानों की संख्या सबसे ज्यादा है।
भारतीय संविधान में सभी को तालीम प्राप्त करने का हक है। किसी भी शिक्षण संस्थान से तालीम प्राप्त करने के लिए मुस्लिम तथा हिन्दू बच्चे के बीच कोई भी भेदभाव नहीं है। किसी भी समुदाय के विकास के लिए तालीम एक बुनियादी जरूरत है और गरीबी के खात्मा तथा चुनौतीपूर्ण वक्त से पार पाने के लिए एक मजबूत समाज बनाने हेतु उच्च तालीम एक मजबूत आला है।
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