...खूब लड़ी मर्दानी और अमर हो गईं !
- शिवचरण चौहान
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भारत और झांसी की आजादी के लिए बलिदान दिया था। लक्ष्मीबाई मदद के लिए ग्वालियर के तत्कालीन महाराज सिंधिया के पास गई थीं, लेकिन सिंधिया ने अंग्रेजों का साथ दिया और महारानी से मिलने की बजाय वह आगरा चले गए। अंग्रेजों को लक्ष्मीबाई के बारे में सटीक सूचना मिल गई थी और उन्होंने लक्ष्मीबाई को घेरकर हमला किया। यदि गद्दारी नहीं की जाती तो लक्ष्मीबाई को उस समय बलिदान नहीं देना पड़ता और तब देश की कहानी कुछ और होती। सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी झांसी की रानी कविता में लिखा है---
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मरदानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इतिहासकार भले ही मौन हो किंतु झांसी और ग्वालियर के आसपास के लोग आज भी कहते हैं कि ग्वालियर के तत्कालीन महाराज अंग्रेजों से मिल गए थे और उन्होंने अंग्रेजों के लिए जासूसी की जिससे लक्ष्मीबाई को बलिदान देना पड़ा। तात्या टोपे ग्वालियर में अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिए गए थे। उनके साथ भी विश्वासघात हुआ था वरना तात्या टोपे तो अजेय योद्धा थे।
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी फौज से लड़ते हुए वीरगति पाई। एक नारी होकर, उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया, वह अदभुत है। उनका जन्म 19 नवंबर 1835 को बनारस में हुआ। इनके पिता का नाम मोरोपंत तथा माँ का नाम भागीरथी बाई था। इनका नाम मनु रखा गया। मनु जब केवल चार वर्ष की थी, तब माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत, मनु को लेकर पेशवा बाजीराव द्वितीय के पास बिठूर आ गए। बाजीराव को अंग्रजों ने पूना से निर्वासित कर कानपुर के पास बिठूर की रियासत दी थी। बाजीराव, मनु को छबीली कह कर पुकारते थे। बाजीराव के कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने नाना साहब को गोद ले रखा था।
मनु, नाना साहब के साथ खेलने लगी। नाना साहब के ही साथ उसने कुश्ती लड़ना, तीर, तलवार, बंदूक चलाना सीखा और घुडसवारी में भी महारत हासिल कर ली। एक बार नाना साहब और मनु में घुड़दौड़ हुई। नाना, पीछे रह गए तो उन्होंने अपने घोड़े को ऐड लगाई। घोड़ा ठोकर खा कर लड़खड़ाया और नाना नीचे गिर पड़े। घायल नाना को मनु अपने घोड़े पर बैठा कर घर लाई। सभी ने मनु के धैर्य और साहस की प्रशंसा की। मनु, जब थोड़ा बड़ी हुई तो उसका विवाह झाँसी के राजा, गंगाधर राव से कर दिया गया। अब मनु, लक्ष्मी बाई बन गई और झाँसी की रानी कही जाने लगी।
अंग्रज धीरे-धीरे भारत के राजघरानों को अपने अधिकार में लेते जा रहे थे।
गंगाधर राव ने भी अपना राज्य सुरक्षित रखने के लिए अंग्रेजों से संधि कर ली। संधि के तहत झाँसी में अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी रख दी गई, जिसका खर्चा झाँसी राजा के ऊपर डाला गया। जो सालाना 2 करोड़ 26 लाख रूपया था। यह बात रानी लक्ष्मीबाई को बहुत बुरी लगी। इसलिए रानी ने किले में अपनी सखियों को सैन्य शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी तथा फौज की एक टुकड़ी भी बनाई।
इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। पूरे झाँसी में उत्सव हुआ। पर जन्म के तीसरे महीने राजकुमार का देहान्त हो गया। झाँसी में शोक छा गया। राजा गंगाधर राव तो बेहाल हो गए। रानी की चिंता बढ़ गई। राज्य का उत्तराधिकारी न होने पर अंग्रेज, झाँसी हड़प लेंगे, यह चिंता रानी को सालने लगी। उसने सलाह करके, एक पाँच वर्षीय बालक आनन्द को गोद ले लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। दामोदर राव ही- झाँसी का वारिस होगा और उसके बालिग होने तक रानी लक्ष्मीबाई झाँसी का राज काज संभालेंगी। इस आशय का एक पत्र अंग्रेज सरकार को गंगाधर राव ने भिजवाया।
गंगाधर राव, बीमार रहते थे और चाहते थे कि झाँसी को गद्दी लक्ष्मीबाई सम्भाले। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। अचानक एक दिन गंगाधर राव का देहान्त हो गया। अंग्रेजों को जैसे इसी समय का इंतजार था। उन्होंने, दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झाँसी को अपने राज्य में मिला लिया। लक्ष्मीबाई को सालाना पाँच हजार रूपये की पेंशन बांध दी। रानी लक्ष्मीबाई, भला इसे कैसे मान लेतीं। उन्होंने घोषणा कर दी कि मैं अपनी झाँसी, अंग्रेजो को नहीं दूंगी। और उन्होंने काँतिकारी तात्या टोपे के साथ मिलकर झाँसी के किले को अंग्रेजों से आजाद करा लिया। इस पर गुस्साए अंग्रेजों ने टीकमगढ़ के दीवान नत्था खाँ को भड़का कर झाँसी पर हमला करवा दिया।
रानी के तोपची गौस खां की तोपों की मार से नत्था खाँ टिक नहीं सका और रणभूमि से भाग खड़ा हुआ। रानी लक्ष्मीबाई, पुरूषों की तरह कपड़े पहनती और वीर से भेष में रहती थीं। सिर पर लाल टोपी, तलवार और ढाल और पिस्तौल हरदम साथ रखती थीं। काना, मंदरा, झलकारी बाई सखियाँ उसके साथ रहती थीं। लगभग दस महीने रानी ने झाँसी पर शासन किया। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। इसी बीच 21 मार्च अट्ठारह सौ 58 को अंग्रेज सरदार ह्यू रोज, एक विशाल अंग्रेजी फौज लेकर झाँसी में चढ़ आया। दोनों ओर से घनघोर युद्ध होने लगा। ह्यूरोज ने जीत मुश्किल देखी तो उसने किले के ओरक्षा दरवाजे के रक्षक दुल्हाजू को लालच देकर तोड़ लिया। दुल्हाजू ने लक्ष्मीबाई के साथ विश्वासघात किया और फाटक खोल दिया।
अंग्रेजी सेना किले में घुस आई और मारकाट करने लगी। सरदारों की राय मानकर रानी लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बाँध कर, घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ी और कालपी आ गई। कालपी में यमुना किनारे बने किले में तात्या टोपे और नाना साहब के छोटे भाई राव साहब ने रानी का साथ दिया और एक छोटी सेना भी बनाई। पर अंग्रेजों ने यहाँ भी उसका पीछा किया और हमला बोल दिया। कालपी से राव साहब, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई बचते बचाते ग्वालियर पहुँचे और ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। पर अंग्रेजी सेना तो जैसे रानी की दुश्मन ही बन हुई थी। महारानी के ग्वालियर पहुँचते ही ग्वालियर के महाराज आगरा चले गए उन्होंने अंग्रेजों को सूचना दे दी। तब अंग्रेजी फौज भी ग्वालियर आ पहुँची। दोनों ओर से घमासान लड़ाई छिड़ गई। इस युद्ध में रानी का घोड़ा मारा गया। उनकी सखियाँ भी वीरगति को प्राप्त हो गईं।
रानी को नया घोड़ा लेना पड़ा। नया छोड़ा, अनाड़ी था और अड़ जाता था। ऐसे में रानी ने लड़ाई से निकलने का निश्चय किया। उन्होंने दाँतों से घोड़े की लगाम पकड़ी और दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए बिजली की गति से आगे बढ़ीं। अंग्रेज फौज ने उनका पीछा किया। रानी लक्ष्मीबाई लगभग निकल ही आई थीं कि रास्ते में एक नाला आ गया। घोड़ा नया था। वह नाला पार करना नहीं जानता था। वह वहीं अड़ गया। तब तक पीछे से शत्रु सैनिक आ गए। एक अंग्रेज ने बंदूक से रानी को गोली मार दी। रानी ने फौरन उस अंग्रेज की गर्दन अपनी तलवार से उड़ा दी। रानी का विकराल रूप देख अंग्रेजी सेना भाग खड़ी हुई। तब तक रानी के विश्वास पात्र सिपाही आ गए। अपना अंत समय देख रानी ने सिपाहियों से कहा कि वे कुछ ऐसा करें कि उनके शव को अंग्रेज हाथ न लगा पाएं। इतना कह रानी ने अंतिम सांस ली।
सिपाहियों ने रानी का शव पास ही स्थित बाबा गंगादास की कुटिया में ले जाकर छिपा दिया। अंग्रेज उनकी लाश नहीं पा सके बाद में वहीं रानी की समाधि बना दी गई।
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