- प्रो. नंदलाल मिश्र

भारतवर्ष का अर्थ होता था ग्रामीण जगत या गांव। कहा भी जाता है कि भारत गांवों में बसता है। सही है भी कि पूरे हिंदुस्तान में दिनचर्या और जीवन शैली ग्रामीण रीति-रिवाजों से ही संचालित होते हैं। आप संभवतः इस बात को स्वीकार करें कि देश दो प्रकार के विधानों से चल रहा है। पहला ग्रामीणों द्वारा निभाये जा रहे संस्कारों और कर्मकांड पद्धतियों से और दूसरा भारतीय संविधान से।



गांव स्वावलंबी थे। एक दूसरे के सहयोग से सभी की जरूरतें पूरी हो जाया करती थीं। हर प्रकार के कार्यों में लोग एक दूसरे की मदद करते थे। सभी जातियां आपस में मिल-जुलकर रहती थी। बाल काटने के लिए नाउ होता था। श्रम के रूप में उसे अनाज दिया जाता था। कपड़ा धुलने के लिए धोबी हुआ करता था। श्रम के बदले अनाज दिया जाता था। उपकरणों और फर्नीचर को बनाने या ठीक करने के लिए लुहार या बढई हुआ करता था।उसे भी अनाज दिया जाता था। तेल गांव के आस-पास ही लोग निकलवा लिया करते थे। उस समय कोल्हू से तेल निकाला जाता था। साग-सब्जी घर पर ही लोग उगा लिया करते थे। इस तरह आवश्यकता की सभी चीजें सुलभ हो जाती थीं।
      परिवार का स्वरूप संयुक्त था। 50-50 लोगों का परिवार होता था।कहीं कहीं इससे भी बड़ा परिवार देखने को मिलता था। कृषि आय का मुख्य स्रोत था। घर के अंदर का कार्य स्त्रियां सम्हालती थीं और बाहर का कार्य पुरुष सम्हालते थे। ईंधन के रूप में कंडे या लकड़ी का उपयोग होता था।खाना बनाने के लिए चावल, दाल, आटा इत्यादि घर की स्त्रियां ही तैयार करती थीं। किचेन में कोई उपकरण नहीं होता था। फिर भी पचास-साठ लोगों का खाना बनता था। कोई समस्या नहीं आती थी।
गांवों का सबसे बड़ा आकर्षण आपसी सद्भाव और भाई चारा था। वहां के व्रत और त्योहार थे। शादी व्याह के अवसर थे। जहां सभी मिलकर एक दूसरे की मदद करते थे। ऐसे अवसरों पर खाना बनाने के लिए हलवाई और बर्तन बाहर से नहीं बुलाने पड़ते थे। सभी मिलजुलकर यह कार्य सम्पन्न कर लिया करते थे। सबके सुख दुख में भागीदार होते थे।
समय का चक्र घूमा और नब्बे के दशक के आस-पास से गांवों में परिवर्तन आना शुरू हुआ। पहले गांव के गरीब लोग बाहर नौकरी या व्यवसाय करने के लिए जाया करते थे। पर परिवर्तन और आधुनिकता ने नौकरी के प्रति आकर्षण पैदा किया और सभी लोग इस दिशा में मुड़ गए। यह भी कह सकते हैं कि खेती बारी में वह दम नहीं रह गया, जिससे गांव के सभी लोगों का उदर भरण हो सके। गांवों में शिक्षा का प्रसार हुआ और लोग पढ़ाई में रुचि लेने लगे। सभी की आर्थिक स्थिति में थोड़ा बहुत सुधार आया। आपसी प्रतिद्वंदिता बढ़ी और सहयोग पीछे छूटता चला गया।
भारत मे लोकतंत्र को मजबूत करने की नियति से पंचायती राज व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। गांवों को अपना नेता चुनने का अवसर दिया गया। पर लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप पहले से ही जाति के नाम पर छिन्न भिन्न हो चुका था, उसे पंचायतों में भी पहुँचा दिया गया। आज भारतीय लोकतंत्र जाति पर ही आकर टिक गई है। आरक्षण ने पहले से ही जातियों में दूरी बना रखा था, अब यह गांव तक पहुँच गया। जो गांव परिवर्तन के दौर से गुजर रहे थे उन्हें एक और विषाक्त हथियार सौंप दिया गया। परिणाम हमारे सामने है। गांव जातियों और टुकड़ों में गुटों में बंट गए और इसके चलते हत्याएं होने लगीं। लाखों रुपये पंचायत के चुनाव में फूंके जाते हैं और मनमाफिक परिणाम न आने पर लड़ाई झगड़ा और हत्याएं आम बात हो गयी हैं।
इतना सब कुछ चल रहा था। धीरे-धीरे इंटरनेट और सोशल मीडिया भी गांव के प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच में आ गया। जो देश गांवों के मूल्यों और संस्कारों पर चल रहा था वही गांव अब देश और विदेश में घटने वाली घटनाओं से चलने लगा है। गुटों को जिंदा रखने के लिए नए नए हथकंडे प्रयोग में लाये जाते हैं। इनमें ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा, रास्ता, नाली, चकरोड इत्यादि प्रमुख हैं। इन्हें हथियार बनाकर एक दूसरे को फंसाने का कार्य किया जाने लगा है। भाई-चारे के लिए, सद्भाव के लिए पहचाने जाने वाले गांव आज ईर्ष्या द्वेष कटुता वैमनस्य और मुकदमेबाजी की भेंट चढ़ रहे हैं।
यदि समय रहते लोकतंत्र के नाम पर पंचायती राज से चुनावों को न हटाया गया या कोई नया विकल्प नही तलाशा गया तो यह राष्ट्रीय लोकतंत्र को चोट पहुंचायेगा और भारतीय समाज बिखर जाएगा।
- अधिष्ठाता (कला संकाय)
   महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट।

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