मनोज कुमार

क्या आप इस बात पर यकीन कर सकते हैं कि पेपरलेस वर्क कर कोई विभाग कुछ महीनों में चार करोड़़ से अधिक की राशि बचा सकता है? सुनने में कुछ अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन यह सौ फीसदी सच है कि ऐसा हुआ है। यह उपलब्धि जनसम्पर्क संचालनालय ने अपने हिस्से में ली है। हालांकि यहां स्मरण करना होगा कि खंडवा सहित कुछ जिला जनसम्पर्क कार्यालयों को पेपरलेस बना दिया गया था। तब इस पेपरलेस वर्क कल्चर से कितनी बचत हुई, इसका लेखाजोखा सामने नहीं आया था। कोरोना के कहर के बाद जनसम्पर्क संचालनालय ने सुध ली और पेपरलेस वर्क कल्चर को अमलीजामा पहनाकर खर्च में कटौती की तरफ अपना कदम बढ़ा दिया है। निश्चित रूप से इसे आप नवाचार कह सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि अन्य विभागों ने इस दिशा में कोई उपलब्धि हासिल नहीं की हो लेकिन उनकी ओर से ऐसे आंकड़े सार्वजनिक नहीं होने से आम आदमी को पता नहीं चल रहा है।

 यह कहानी शुरू होती है करीब दो वर्ष पहले कोरोना के धमकने के साथ। आरंभिक दिनों में सबकुछ वैसा ही चलता रहा और लगा कि बस थोड़े दिन की बात है लेकिन ऐसा था नहीं। कोरोना की दूसरी लहर ने जो कोहराम मचाया तो सब तरफ हडक़म्प मच गया। कोरोना के शिकार लोगों को इलाज, उनकी देखरेख और व्यवस्था बनाये रखने के लिए मुस्तैद अधिकारियों और कर्मचारियों को मोर्चे पर डटना मजबूरी थी। जिंदगी उनकी भी थी, डर उनके पास था और इस डर ने एक संभावना को जन्म दिया। टेक्रालॉजी का यह नया दौर है और इस महामारी के पहले हम इस कोशिश में लगे थे कि पूरा तंत्र डिजीटल हो जाए लेकिन सौ फीसदी करने में तब वैसी रूचि लोगों की नहीं थी। आज भी सौफीसदी डिजीटलीकरण नहीं हो पाया है लेकिन डर से उपजी संभावना में जो जहां है, वहीं रूक गया और हाथों में कोई मोबाइल लिये तो कोई आइपैड तो कोई घर पर रहकर लेपटॉप से अपने दायित्व को पूरा कर रहा था। इस तरह से जो काम बीस वर्ष में नहीं हो पाया था, वह दो वर्ष में हो गया। इस डिजीटल अम्ब्रला के नीचे पूरा शासन और सरकार आ गई है। बदलते जमाने के साथ हम अब चलने के लिए अब पूरी तरह से तैयार हैं बल्कि चलने लगे हैं।
इस डिजीटल सिस्टम ने पूरे तंत्र का चेहरा बदल दिया है। पेपरलेस जिस प्रक्रिया की बात हम करीब एक दशक से कर रहे थे लेकिन व्यवहार में संभव नहीं हो पा रहा था, जो अब संभव है। डिजीटलकरण के पश्चात एक और बड़ी पहल यह हुई है कि अब प्रशासन का चेहरा-मोहरा बदलने लगा है। कोई कहीं नहीं आ जा रहा है, सब अपने ठिकाने पर मुस्तैद हैं। ऑनलाईन मीटिंग हो रही है। चर्चा और फैसले हो रहे हैं। खर्चों पर जैसे कोई ब्रेकर लग गया है। एक किस्म से इसे आप अनुपात्दक व्यय भी कह सकते हैं, जो नियंत्रण में आ गया है। स्वागत-सत्कार में भी होने वाले खर्च लगभग समाप्त हो गए हैं। राजधानी के मंत्रालय से लेकर जिला और तहसील मुख्यालय में ही सब काम निपट जा रहा है। यह अपने आप में नवाचार है क्योंंकि इससे होने वाली बचत का समुचित उपयोग किया जा सकेगा।
सरकार ने कोरोना महामारी के दरम्यान शासकीय कार्यालयों को पहले जुलाई तक पांच दिनी सप्ताह घोषित किया था, जिसे बढ़ाकर अब अक्टूबर 2021 तक कर दिया गया है। यह फैसला भी स्वागतयोग्य है। हालांकि कोरोना के पहले सरकार ने पांच दिवसीय कार्यालयीन सप्ताह के लिए सुझाव मांगे थे लेकिन अरूचि के चलते मामला ठंडे बस्ते में चला गया था लेकिन कोरोना ने एक पुरानी और सकरात्मक योजना को आरंभ कर दिया है। पहली नजर में यह पांच दिनी वर्किंग का कांसेप्ट थोड़ा ठीक नहीं लगता है लेकिन यह शासन और अधिकारी कर्मचारियों के लिए हितदायक है। तंत्र के स्तर पर देखें तो लगातार दो दिन कार्यालय बंद रहने से स्थापना व्यय में कमी आती है। संसाधनों की बचत होती है या कहें कि खर्च नियंत्रण में होता है। कई राज्यों में पहले से पांच कार्य दिवस प्रचलन में है।
इस तरह से हम मान सकते हैं कि कोरोना ने ना केवल आम आदमी की जिंदगी में परिवर्तन लाया बल्कि शासकीय तंत्र में भी बेहतर बदलाव की दिशा में प्रेरित किया है। यह तो निश्चित है कि आज नहीं तो कल, हमें डिजीटल दुनिया में सौफीसदी प्रवेश करना है तो आज से क्यों नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि यह असुविधाजनक है। मान लिया तो जो खरीददारी आप इंटरनेट के माध्यम से करते हैं, रेल-बस का किराया अनेक तरह के एप के माध्यम से करते हैं, तब क्या आपके लिए यह असुविधाजनक नहीं है। एक बार कोशिश करके देख लीजिए राह आसान हो जाएगी। अब जरूरत है कि अम्ब्रेला को ओपन कर सभी से कहा जाए आओ, थोड़ा-थोड़ा डिजीटल हो जाएं।

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