- ऋषि कुमार वर्मा, जालंधर


चंपावत जिले में पर्वतों की श्रेणियों के बीच बसा मां वाराही देवी का मंदिर बेहद अनोखा है। यहां मां को प्रसन्न करने के लिए खून बहाए जाने की भी परंपरा बताई जाती है। यही नहीं यहां अगर किसी ने सीधी आंखों से मां के दर्शन कर लिए, तो उसकी आंखों की रोशनी तक चली जाती है। लेकिन मां के इस दर से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं जाता है।

यह मंदिर यहां आयोजित होने वाले ‘बग्वाल’ यानी कि पत्थरमार युद्ध के लिए भी प्रसिद्ध है इसका इतिहास सदियों पुराना है। कहा जाता है कि मंदिर का ताल्लुक महाभारत काल से भी है।  
रक्षाबंधन के दिन पत्थरमार युद्ध का आयोजन-
 मां वाराही देवी का मंदिर उत्तराखंड के लोहाघाट से तकरीबन 70 किलोमीटर देवीधुरा कस्बे में स्थित है। इस मंदिर को 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मंदिर में श्रावणी पूर्णिमा यानी कि रक्षाबंधन के दिन खास तरह की परंपरा ‘बग्वाल’ यानी कि पत्थरमार युद्ध का आयोजन किया जाता है।
मंदिर में मां के इस रूप की है मूर्ति-मां वाराही देवी मंदिर में चंपा देवी और लाल जीभ वाली महाकाली की मूर्ति स्थापित की गई है। बताया जाता है कि यहां मंदिर के पास ही रहने वाली स्थानीय जाति महर और फर्त्याल के लोग बारी-बारी से नर बलि देकर मां को प्रसन्न करते थे।
गुफा में हुई थी स्थापना -
मां वाराही देवी मंदिर की स्थापना के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि उस समय इस स्थान पर रूहेलों ने कत्यूरी राजाओं पर आक्रमण कर दिया था। संकट से प्राण बचाने के लिए कत्यूरी राजाओं ने वाराही की मूर्ति के साथ घने जंगलों के बीच बसी गुफा में शरण ली। इसके बाद गुफा में ही मां की मूर्ति को स्थापित करके वह मां की पूजा-आराधना करने लगे। मां भी उनकी मुरादें पूरी करती गईं और धीरे-धीरे दूर-दूर से भक्तजन मां के दरबार में अर्जी लगाने पहुंचने लगे।
मां वाराही मंदिर का इतिहास-वाराही देवी मंदिर के बारे में मान्यता है कि अगर कोई मां की इस मूर्ति के सीधे दर्शन कर ले, तो उसकी आंखों की रोशनी चली जाती है। यही वजह है कि मां की मूर्ति को ताम्र की पेटिका में रखा गया है।
ऐसे शुरू हुई बग्वाल की प्रथा-
कथा मिलती है कि मां काली के गणों को प्रसन्न करने के लिए नरबलि की प्रथा थी। इस प्रथा को निभाने के लिए जब नर की बारी आई, तो वह एक वृद्धा का इकलौता पोता था। वृद्धा ने मां से उसके प्राणों की रक्षा करने की प्रार्थना की। देवी मां वृद्धा से प्रसन्न हुई और उन्होंने यह कहा कि एक व्यक्ति के बराबर उन्हें खून चढ़ाया जाए, तब से बग्वाल यानी पत्थरमार युद्ध की परंपरा शुरू हुई।
मां वाराही देवी मंदिर परिसर में हर साल बग्वाल मेले का आयोजन किया जाता है। इसमें राजपूतों के चार खेमे गहरवाल, वलकिया, चम्याल और लमगडि़या शामिल होते हैं। यह मां की पूजा के बाद मैदान में युद्ध करते हैं। इसमें हर तरफ  से पत्थर बरसाए जाते हैं। चोट से बचने के लिए लोग बांस से बनी ढाल का प्रयोग करते हैं, लेकिन सरकार द्वारा इस युद्ध में पत्थर प्रयोग करने पर रोक लगाने से अब ये फलों से लड़ा जाता है।
मान्यता है कि महाभारत काल में पांडवों ने यहां निवास किया था और भीम ने खेल-खेल में पहाड़ी के छोर पर कुछ शिलाएं फेंकी थीं। इन्हीं में से दोे शिलाएं आज भी मंदिर के द्वार के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक शिला को राम शिला के नाम से जाना जाता है, वहीं दूसरी शिला पर हाथों के निशान भी हैं।

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