नारी को अग्रणी स्थान देना समय की अनिवार्यता
- संजीव ठाकुर
सुसंस्कृत और शिक्षित नारी ही श्रेष्ठ समाज तथा सशक्त राष्ट्र की वास्तविक निर्मात्री है, क्योंकि स्त्री केवल परिवार की धुरी नहीं बल्कि सभ्यता की संवाहिका भी है, और भारत ही नहीं समूचे विश्व में वह अपने नैसर्गिक सम्मान की यथोचित हकदार है; किसी भी समाज का विकास तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक स्त्रियों को समान गरिमा, अवसर और निर्णय-सत्ता प्राप्त न हो, इसलिए परंपरागत मान्यताओं के पुनर्मूल्यांकन के साथ परिवार, समाज और राष्ट्र—तीनों स्तरों पर नारी को अग्रणी स्थान देना समय की अनिवार्यता है।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में “नारी पूज्यन्ते” का उद्घोष केवल आस्था नहीं बल्कि दायित्व का स्मरण है, जहाँ शैलपुत्री से सिद्धिदात्री तक देवी के नौ स्वरूप अन्याय और आततायियों से रक्षा के प्रतीक रहे हैं, किंतु विडंबना यह है कि विश्वव्यापी पुरुष-प्रधान सामाजिक संरचना ने आदिम काल से आधुनिक युग तक स्त्री को स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में स्वीकार करने में संकोच किया, निर्णय के अधिकार सीमित रखे और संरक्षण की शर्तों में बाँधकर उसकी अस्मिता को संकुचित किया; भारतीय समाज में भी नीतिकारों की शाश्वत वकालत—कि स्त्री पिता, भाई, पति या पुत्र के संरक्षण में ही सामाजिक जीवन जिए—ने उसे व्यक्ति से पहले संबंध बना दिया।
यहाँ तक कि धर्मशास्त्रीय उद्धरणों की रूढ़ व्याख्याएँ बालविवाह जैसी कुप्रथाओं का आधार बनीं, जबकि पश्चिमी तथाकथित आधुनिक समाज भी 1920 तक महिलाओं को व्यक्ति के रूप में मान्यता देने से वंचित रहा—इंग्लैंड में 1918 और अमेरिका में 1920 के बाद ही मताधिकार मिला—इसके विपरीत भारत में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कॉर्नेलिया सोराबजी के वकालत आवेदन को व्यक्ति मानकर स्वीकार करना ऐतिहासिक कदम था, जो स्त्री की विधिक पहचान की दिशा में अग्रसरता का प्रमाण है; इसके बावजूद लंबे समय तक नारी को ‘अबला’ का दर्जा देकर अवैतनिक श्रम या उपभोग की वस्तु के रूप में देखने की मानसिकता हावी रही, जबकि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने नारी को पुरुष से अधिक सामर्थ्यवान मानते हुए उसे नर की सहचरी कहा और तस्लीमा नसरीन ने सटीक रूप से रेखांकित किया कि स्त्रियाँ जन्म से अबला नहीं होतीं, समाज उन्हें अपनी रूढ़ संस्कृति, प्रतिमानों और जीवन-शैली से अबला बनाता है।
आधुनिक युग में नारीवाद, मानवाधिकारवाद और पर्यावरणवाद जैसे क्रांतिकारी विमर्शों ने बराबरी की चेतना को सशक्त किया, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस जैसे आयोजनों ने अधिकारों की माँग को वैश्विक स्वर दिया, और भारत की नारी ने स्वास्थ्य, इंजीनियरिंग, सेना, प्रशासन, परिवहन, विज्ञान और अंतरिक्ष तक कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्रनिर्माण में अपनी क्षमता सिद्ध की—श्रीमावो भंडारनायके, मार्गरेट थैचर, इंदिरा गांधी, गोल्डा मेयर से लेकर कमला हैरिस, निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, किरण बेदी और स्वर्गीय कल्पना चावला तक—ये नाम केवल उपलब्धियाँ नहीं, संभावनाओं के प्रतीक हैं।
फिर भी कठोर यथार्थ यह है कि ग्रामीण भारत में महिला साक्षरता और भागीदारी सीमित है, शहरी क्षेत्रों में भी समानता, निजता और अवसरों तक पहुँच सबको नहीं, और महानगरों से लेकर दूरस्थ अंचलों तक नारी-उत्पीड़न की घटनाएँ चेतावनी देती हैं कि सशक्तिकरण की राह अभी लंबी है; ऐसे में शिक्षित और सजग स्त्रियों के साथ-साथ शासन-प्रशासन, समाज और पुरुषों को भी साझेदारी की जिम्मेदारी निभानी होगी, क्योंकि नारी का सम्मान किसी एक वर्ग का उपकार नहीं बल्कि राष्ट्र की नैतिक पूँजी है—और जब नारी सशक्त होगी, तभी समाज संतुलित और राष्ट्र समृद्ध होगा।
(लेखक, चिंतक, रायपुर छत्तीसगढ़)






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