मनरेगा से विकसित भारत मिशन तक: आजीविका की नई दिशा
- हरिओम हंसराज
मनरेगा अर्थात महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम भारत की ग्रामीण सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का एक ऐसा पिछला स्तंभ रहा है, जिसने गरीब ग्रामीण परिवारों को वर्ष में कम से कम 100 दिनों के मजदूरी आधारित रोजगार की वैधानिक गारंटी प्रदान की थी। वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के रूप में लागू हुआ यह कानून ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा की दिशा में एक क्रान्तिकारी कदम माना गया। इसने रोजगार को केवल योजना नहीं बल्कि कानूनी अधिकार का दर्जा दिया, जिससे ग्रामीणों को समयबद्ध मजदूरी, कार्य की उपलब्धता और बेरोजगारी भत्ते जैसे सुरक्षा जाल मिले।
मनरेगा की ताकत उसके अधिकार‑आधारित ढांचे में निहित थी। अधिनियम यह सुनिश्चित करता था कि यदि किसी ग्रामीण परिवार को पंद्रह दिनों के भीतर काम उपलब्ध नहीं कराया जाता, तो उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाए और मजदूरी का भुगतान समय पर हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 2023‑24 में लगभग 26 करोड़ जॉब कार्ड सक्रिय थे और लगभग 15 करोड़ ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराया गया। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशालता और सामाजिक समावेशन को दर्शाता है कि महिलाओं की भागीदारी लगभग 55 प्रतिशत से अधिक और अनुसूचित जाति तथा जनजाति की हिस्सेदारी लगभग 40 प्रतिशत थी।
मनरेगा ने जब भी आर्थिक संकट या प्राकृतिक आपदा का सामना किया, तब ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोविड‑19 महामारी के दौरान शहरी क्षेत्रों से लौटे ग्रामीण श्रमिकों के लिए यह योजना न्यूनतम आय सुरक्षा का मजबूत आधार बनकर उभरी और लाखों परिवारों को आत्मनिर्भरता की आस दी। इसके बावजूद, मनरेगा के क्रियान्वयन स्तर पर कई चुनौतियाँ बनी रहीं। मजदूरी भुगतान में देरी, बजटीय सीमाओं की बाधा, शिकायत निवारण तंत्र की कमजोरियाँ और स्थानीय परियोजनाओं की गुणवत्ता जैसे मुद्दे अक्सर चर्चा में रहे।
इसी पृष्ठभूमि में विकसित भारत‑रोजगार और आजीविका गारंटी मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025 संसद में पेश किया गया और दिसंबर 2025 में इसे लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों सदनों से पारित कर दिया गया। यह विधेयक मनरेगा को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से लाया गया है और इसका लक्ष्य ग्रामीण रोजगार नीति को एक नये ढांचे में पुनःपरिभाषित करना है। सरकार का तर्क है कि ग्रामीण रोजगार और आजीविका को केवल मजदूरी तक सीमित नहीं रखकर स्थायी आय, कौशल विकास और आधारभूत संरचना निर्माण के साथ जोड़ा जाना चाहिए, ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक और समग्र रूप से सशक्त हो सके।
नए विधेयक के अनुसार, अब प्रत्येक ग्रामीण परिवार को प्रतिवर्ष 125 दिन का मजदूरी आधारित रोजगार प्रदान किया जाएगा, जो मनरेगा के 100 दिनों के मुकाबले बढ़ाया गया है। यह वृद्धि ग्रामीण आय सुरक्षा को मजबूत बनाने और ग्रामीण विकास को व्यापक दृष्टि देने की एक कोशिश मानी जाती है। विधेयक का उद्देश्य केवल मजदूरी के अवसर प्रदान करना नहीं है, बल्कि ग्रामीण आजीविका, स्थानीय योजना‑निर्माण और सामुदायिक विकास के माध्यम से ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाना है। इसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में जल सुरक्षा, आधारभूत ग्रामीण संरचना, आजीविका संबंधित ढाँचे और चरम मौसम की चुनौतियों से निपटने के उपायों को प्राथमिकता दी जाएगी।
नए विधेयक में वित्तीय ढांचे में भी परिवर्तन किया गया है। मनरेगा के समय मजदूरी का भुगतान केंद्रीय सरकार पूरी‑तौर पर करती थी, जबकि नए विधेयक में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच खर्च का अनुपात निर्धारित किया गया है, जिससे राज्यों की वित्तीय भागीदारी बढ़ेगी। उत्तर‑पूर्वी और हिमालयी राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए यह अनुपात 90:10 रखा गया है और अन्य राज्यों के लिए 60:40 का मॉडल अपनाया गया है। यह साझा‑वित्तीय ढांचा स्थानीय प्राथमिकताओं को और अधिक ध्यान में रखकर व्यय को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
इसके अतिरिक्त, विधेयक में ग्राम पंचायतों को विकसित ग्राम पंचायत योजनाएँ तैयार करने का प्रावधान है, जो स्थानीय स्तर पर रोजगार संबंधी कार्यों की पहचान और प्राथमिकता तय करेंगे। इन योजनाओं को ब्लॉक और जिला स्तर पर समेकित कर विकसित भारत राष्ट्रीय ग्रामीण संरचना ढाँचे के अन्तर्गत शामिल किया जाएगा, जिससे ग्रामीण बुनियादी ढांचे का विकास राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप हो सके। डिजिटल निगरानी, जैव‑प्रामाणिकता प्रबंधन और वास्तविक समय में कार्यों की रिपोर्टिंग के प्रावधान पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देंगे।
विधेयक यह भी अनुमति देता है कि कृषि के महत्वपूर्ण मौसमों में, जैसे कि बुवाई या कटाई के दौरान, लगभग साठ दिनों तक रोजगार कार्यों को स्थगित किया जा सकता है ताकि कृषि श्रमिकों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। यह प्रावधान ग्रामीण रोजगार नीति और कृषि मांग के बीच संतुलन स्थापित करने का एक प्रयास माना जाता है, पर इसके समर्थकों और आलोचकों दोनों ने इस बदलाव पर अपनी‑अपनी प्रतिक्रियाएँ दी हैं।
नए विधेयक ने केवल रोजगार की गारंटी को बढ़ाया है, बल्कि आज की ग्रामीण अपेक्षाओं के अनुरूप इसे रोजगार और आजीविका की विस्तृत रणनीति के साथ संरेखित किया है। सरकार का तर्क है कि नया ढांचा भ्रष्टाचार, भुगतान में देरी, आश्रित परियोजनाओं की गुणवत्ता जैसे पुराने मनरेगा की कमजोरियों को दूर करेगा और ग्रामीण क्षेत्रों में सबल आर्थिक संपन्नता लाएगा। इसके साथ ही डिजिटल शासन और सामाजिक ऑडिट के प्रभाव के माध्यम से पारदर्शिता बढ़ाने के उपाय किए गए हैं।
लेकिन इस विधेयक के विरोध में भी व्यापक आलोचना हुई है। विपक्ष और कई सामाजिक संगठन इसे मनरेगा के अधिकार‑आधारित ढांचे का क्षरण कहते हैं। उनका तर्क है कि मनरेगा में ग्रामीणों को काम का अधिकार मांगने का कानूनी हक था, जो अब नए विधेयक में नियोजित आवंटन और बजटीय सीमा के कारण कमजोर हो सकता है। कुछ समूहों का यह भी कहना है कि अत्यधिक केंद्रीकरण और राज्यों पर वित्तीय बोझ डालने से वास्तविक रोजगार उपलब्धता प्रभावित हो सकती है, विशेषकर उन राज्यों में जिनके पास सीमित संसाधन हैं। इस विरोध के चलते कई किसान और मजदूर संगठनों ने विधेयक के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन करने की चेतावनी भी दी।
विधेयक का यह बदलाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण को केवल रोजगार तक सीमित न रखकर ग्रामीण आजीविका, कौशल, उद्यमिता और स्थानीय विकास की दिशा में ले जाने का प्रयास है। यदि यह नए प्रावधान ग्रामीणों के जीवन स्तर में वास्तविक परिवर्तन लाने में समर्थ रहा, तो यह ग्रामीण भारत की समग्र व्यवस्था में एक सकारात्मक परिवर्तन सिद्ध हो सकता है। लेकिन इसके क्रियान्वयन की गुणवत्ता, बजटीय प्रबंधन, राज्यों की भागीदारी और पारदर्शिता व्यवस्था ही तय करेगी कि यह नीति आर्थिक रूप से प्रभावशाली और सामाजिक रूप से समावेशी है या नहीं।
ग्रामीण भारत के लिए विकास का अर्थ आज भी काम, समय पर मजदूरी, स्थायी आजीविका और सम्मानजनक जीवन से जुड़ा हुआ है। नीति की दिशा को इन मूलभूत आवश्यकताओं की कसौटी पर परखा जाना चाहिए और ग्रामीण समाज की वास्तविक अपेक्षाओं के अनुरूप इसे परिष्कृत किया जाना चाहिए।





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