बदलता आतंकवाद
इलमा अज़ीम 
अभी तक आतंकवाद को लेकर विद्वान लोग यही व्याख्या कर रहे थे कि बेरोजगारी के कारण हताशा में युवा पीढ़ी बंदूक उठा लेती है। केवल आतंकवाद ही नहीं माओवाद/नक्सलवाद को लेकर भी बुद्धिजीवी यही तर्क देते हैं। ये तर्क वे लोग देते हैं जिनके कान भीतर की आवाज को सुन नहीं पाते। वे लोग अपना बौद्धिक आतंक व नेतृत्व जमाए रखने के लिए इस प्रकार की हवाई व्याख्याएं देते हैं। जबकि आतंकवाद का मूल कहीं और है। 

आतंकवाद महज हताशा या दुस्साहस नहीं है। इसके पीछे पूरी विचारधारा होती है। उस विचारधारा के आधार पर कुछ प्राप्त करने की कल्पना की जाती है। उस प्राप्ति के लिए आतंक, हत्या को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि आतंकवाद महज एक साधन है जिसके प्रयोग से कोई व्यक्ति या समूह प्रचलित व्यवस्था के स्थान पर कोई वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करना चाहता है।

 वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए दूसरे तरीके भी हैं। सबसे प्रचलित तरीका लोकतांत्रिक तरीका है। इससे लोगों को अपना मत व्यक्त करने का अवसर दिया जाता है। लेकिन जब किसी ग्रुप को लगता है कि लोग उनके साथ नहीं हैं, वे उस व्यवस्था से सहमत नहीं हैं जो व्यवस्था यह ग्रुप स्थापित करना चाहता है। उस स्थिति में इस प्रकार के विशेष ग्रुप आतंक का सहारा लेते हैं। आतंक फैलाने के लिए हिंसा और हत्या का सहारा लिया जाता है। लेकिन वे जानते हैं कि किसी दोषी की हत्या से आतंक नहीं फैलता। उससे तो आम आदमी ख़ुश ही होते हैं। 


इसलिए निर्दोषों की हत्या करके आतंक फैलाया जाता है। आतंकवाद और नक्सलवाद का मूल इसी व्याख्या में छिपा हुआ है। लेकिन प्रश्न यह है कि भारत में जो समूह अलग अलग या मिल कर आतंकवाद का प्रयोग कर रहे हैं, वे आखिर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? ऐसी कौन सी वैकल्पिक व्यवस्था है जो वे भारत में स्थापित करना चाहते हैं? इसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई बार ये समूह व्याख्या कर चुके हैं या करते रहते हैं। 



ये समूह मानते हैं कि भारत में सदियों पहले जो प्रयोग शुरू किया था, वह अभी तक सफल नहीं हो सका। ये जो नया आतंकवादी समूह राडार पर आया है, इसमें ज्यादा वे लोग हैं जो अभी तक पर्दे के पीछे रहते थे और केवल नेतृत्व करते थे। लेकिन अब ये खुद ही मैदान में उतर आए हैं। यह आतंकवाद की रणनीति में बदलाव का संकेत है। इस पर रोक लगनी चाहिए।

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