युगों से आज तक, आवश्यकता चरित्र विजय
सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
भारत में विजयादशमी की परंपरा पौराणिक काल से संबंधित है। सतयुग में भगवती मां दुर्गा ने दानव महिषासुर का वध इसी दिन किया था और त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने रावण को यमपुरी भी इसी दिन पहुंचाया था। द्वापर में पांडवों ने अज्ञातवास में शमी के वृक्ष में जो अपने शस्त्र छुपाए थे, उन्हें महाभारत युद्ध के लिए पुनः निकाला था और शमी के वृक्ष की तथा शस्त्रों की पूजा की थी। यह पर्व तीनों युगों में बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक रहा।
विजयादशमी या दशहरा मनाने की भारतीय परंपरा बहुत प्राचीन है। द्वापर से अब तक शस्त्र पूजा इस दिन विशेष रूप से की जाती है। आधुनिक युग में रावण के पुतले को जलाने की परंपरा प्रारंभ हुई। माना जाता है आजादी के बाद सर्वप्रथम 1948 में रांची में रावण दहन हुआ, धीरे-धीरे पूरे भारत में रावण दहन किया जाने लगा। लगभग 77 वर्षो से हम रावण का पुतला जलाकर दशहरा, अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मना रहे है। भारतीय संस्कृति के इस शाश्वत पर्व का केंद्रीय कृत्य, रावण दहन, मात्र एक पौराणिक घटना का पुनर्मंचन नहीं, बल्कि आधुनिक समाज के लिए एक गहन दार्शनिक, नैतिक और सामाजिक सार्थकता का दर्शन भी है।
वर्तमान युग में, जब अपराध, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, तो मन में प्रतिवर्ष ही प्रश्न उठता है कि हम यह बुराई रूपी रावण दहन मात्र बनावटी ही कर रहे है। क्या यह परंपरा हमें आत्म-समीक्षा और सामूहिक दायित्व की ओर प्रेरित कर पा रही है।
आज के समय में जब समाज में अपराध का साया बढ़ रहा है। अपराध के विभिन्न रूप दृष्टिगत है जिनमें प्रमुख भ्रष्टाचार, व्याभिचार, लैंगिक उत्पीड़न, एक-दूसरे की आस्था का अपमान, साइबर अपराध, हत्याएं और पर्यावरणीय दोहन न केवल कानूनी व्यवस्था के लिए चुनौती हैं, बल्कि चरित्र के पतन का द्योतक भी हैं। रावण, जो परम ज्ञानी, शक्ति सम्पन्न और वैभव युक्त होने के पश्चात भी अहंकार और अधर्म को धारण करने के कारण पराजित हुआ। वह ऐसी ही विकृतियों का तो प्रतीक है।
रावण के दस सिर जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, माया, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा और भय के प्रतीक है वे आज भी समस्त सामाजिक अपराधों के मूल कारण हैं। उदाहरण के लिए लोभ और अहंकार को हम भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराधों जैसे घोटालों, टैक्स चोरी से समझ सकते हैं। काम और क्रोध को लैंगिक हिंसा, सड़क पर होने वाले झगड़ों और घरेलू हिंसा के प्रमुख कारण मान सकते हैं। ईर्ष्या, घृणा और मद को हम सामाजिक विभाजन, भाषावाद, एक-दूसरे की आस्था पर चोट, सोशल मीडिया पर अपमान जनक हरकते, साइबर बुलिंग और प्रतिस्पर्धा में अनैतिक तरीकों के रूप में समझ सकते हैं। मोह, माया को हम परिवार से समाज और राजनैतिक परिदृश्य में भाई भतीजावाद और परिवार की राजनीति से समझ सकते है।
रावण दहन का अनुष्ठान हमें सिखाता है कि अपराध का उन्मूलन समाज के बाहर नहीं, बल्कि सबसे पहले हमारे भीतर के इन रावणों को पराजित करने से होगा। हमें आत्म-समीक्षा करनी होगी। हम बदलेंगे युग बदलेगा यह स्वयं के चरित्र निर्माण की अनिवार्य शर्त है। बुराई रूपी रावण दहन हमें आत्म-शुद्धिकरण का आह्वान करता है। यह हमें भौतिकवादी दौड़ में लिप्त होने के बजाय नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता देने का आह्वान करता है।
हम व्यक्तिगत शुद्धि से बुराई के अंत की ओर बढ़ सकते है। छोटे स्तर पर भी रिश्वत देना या नियम तोड़ना जैसे कार्य हमारे लोभ और अहंकार के छोटे रूप हैं। दशहरा हमें प्रेरित करता है कि हम इन नैतिक कमज़ोरियों को पहचानें और उन्हें जलाकर अपने कर्मों को सिद्धांतों के अनुरूप बनाएं।
हमें अपने में कर्तव्यपरायणता को धारण करना होगा। श्री राम का चरित्र मर्यादा, न्याय और कर्तव्य का प्रतीक है। रावण दहन के बाद हम राम जी के आदर्शो को स्थापित करने का संकल्प लेते हैं, जिसका अर्थ नैतिकता को अपने जीवन का आधार बनाना है।
हमें हमारे व्यक्तिगत के साथ सामाजिक दायित्व का निर्वहन भी सामूहिक विजय की ओर ले जाएगा। रावण दहन का संदेश केवल व्यक्ति विशेष के लिए सीमित नहीं है, बल्कि यह सामूहिक दायित्व की भावना को भी पुष्ट करता है।
हमें जागरूकता और विरोध के स्वर मुखर करने होंगे। समाज में किसी भी प्रकार का अपराध तभी फलता-फूलता है जब लोग मौन रहते हैं और जो बोलते है हम उनका साथ देकर, समर्थन नहीं करते। दशहरा हमें अधर्म के विरुद्ध एकजुट होकर आवाज़ उठाने और सामाजिक बदलाव हेतु प्रेरित करता है। अपराध को कम करने के लिए जागरूकता अभियान, सामुदायिक निगरानी और कानून का सम्मान जैसे सामूहिक प्रयास अनिवार्य हैं। रावण दहन हमें यह सिखाता है कि समाज में बदलाव तभी संभव है, जब प्रत्येक व्यक्ति जिम्मेदारी लें। जब एक-एक व्यक्ति निष्ठा समझेगा तो स्वतः ही समाज बदलेगा।
यह तो बात हुई विजया दशमी पर स्वयं व समाज में बुराईयों को ध्वस्त करने की पर हमें सर्व के लिए पर्यावरण संरक्षण, जीव हिंसा को भी रोकने का बीड़ा उठाना होगा। हमें रावण दहन को पर्यावरण अनुकूल बनाना भी एक नैतिक दायित्व मानना होगा। पुतला दहन में पर्यावरण अनुकूल सामग्री का उपयोग कर हम प्रकृति को शोषण रूपी अहंकार से बचा सकते है। जीव हिंसा को रोकने की दिशा में भी हमें दयालुता तथा नैतिकता का विस्तार करना होगा। शाकाहार को बढ़ावा देना, अधिक से अधिक वृक्ष लगाना और उनका संरक्षण करना भी विजयादशमी पर चरित्र निर्माण की दिशा में परिपक्व कदम हो सकता है।
अंततः रावण दहन का सच्चा अर्थ आंतरिक और बाह्य दुर्गुणों पर चरित्र और शुभ कर्म की विजय है। आज, जब समाज अपराध के विभिन्न रूपों से जूझ रहा है, दशहरा स्मरण है कि सबसे बड़ी विजय तभी मिलती है, जब हम अपने भीतर के रावण को परास्त करें और श्री राम के आदर्शों को अपने जीवन में चरितार्थ करें। यह पर्व हमें न केवल व्यक्तिगत शुद्धिकरण, बल्कि सामाजिक जागरूकता और नैतिक क्रांति की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है।
इंदौर (म.प्र.)
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