हाल के वर्षों में अखबारों और सोशल मीडिया पर ऐसी घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। मुंबई में एक सेवानिवृत्त पिता को बासी चावल खिलाकर अंधेरी कोठरी में ढकेला गया। एक बुजुर्ग महिला की चप्पलों से पिटाई का वीडियो वायरल हुआ। एक बेटा अपने बूढ़े माता-पिता को सडक़ पर छोडक़र फरार हो गया। अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर जम्मू का एक वीडियो आया जिसमें एक बुजुर्ग को उसका बेटा वृद्धाश्रम में छोड़ कर गया है। हमारे शास्त्रों एवं संस्कृति में माता-पिता को पूजनीय बताया गया है। किंतु विडंबना देखिए कि आज हम धन की अंधी दौड़ में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि अपने जीवन की इस अमूल्य निधि का सर्वथा तिरस्कार करने लगे हैं। माता-पिता की सेवा से बढक़र कोई सेवा नहीं है। सरकार ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 जैसे कानून बनाए हैं। पर सवाल यह है कि क्या कानून कागजों पर दम तोड़ रहे हैं?
अधिकांश बुजुर्ग या तो इन कानूनों से अनभिज्ञ हैं, या फिर ‘घरेलू मामला’ और ‘समाज में बदनामी’ के डर से चुप्पी साध लेते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, 31 फीसदी बुजुर्ग प्रतिशोध के भय से शिकायत तक नहीं कर पाते। नतीजतन, अत्याचारियों के हौसले और बुलंद होते जाते हैं। एक जनप्रतिनिधि और समाजसेवक के रूप में, मुझे समाज के हर तबके के बीच जाने का अवसर मिलता है। मेरे पास लोग अपनी पीड़ा लेकर भी आते हैं, और उनकी वेदनाएं सुनकर कभी-कभी हृदय विचलित हो उठता है, आंखें नम हो जाती हैं।
सबसे दुखद और हृदय-विदारक दृश्य तब देखने को मिलता है, जब उन्हीं माता-पिता को, जिन्होंने अपना खून-पसीना एक करके, अपने बच्चों को ‘काबिल’ बनाया, उन्हीं बच्चों द्वारा बुढ़ापे में अपने माता-पिता को एकदम उपेक्षित और दयनीय हालत में छोड़ दिया जाता है। यह सिर्फ एक व्यक्तिगत विफलता नहीं, बल्कि हमारे सामूहिक सामाजिक-सांस्कृतिक पतन का प्रतीक है। यहां सिर्फ कानून का सवाल नहीं, बल्कि हमारी नैतिकता और संस्कारों का संकट है। सवाल यह भी है कि क्या हमने अपने बच्चों को इतना स्वार्थी और संवेदनहीन बना दिया है कि वे अपने माता-पिता की देखभाल को भी एक सौदा समझने लगे?
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