जहाज निर्माण कारोबार की संभावनाएं
- डा. अश्विनी महाजन
जब भारत 2047 तक विकसित देश बनने की आकांक्षा रखता है, ऐसे में एक मजबूत समुद्री प्रणाली विकसित किए बिना यह संभव नहीं हो सकता है। हाल के दिनों में इस क्षेत्र में कुछ विकास के बावजूद, लक्ष्य बहुत दूर है। स्वतंत्रता के बाद, हालांकि कुछ बंदरगाहों के नवीनीकरण, जहाज निर्माण और प्रमुख बंदरगाहों के आसपास बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए कुछ प्रयास किए गए, फिर भी भारत दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में पिछड़ा रहा। केवल बंदरगाहों के मामले में ही नहीं, जहाज निर्माण के मामले में भी हम अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं से पिछड़ गए। जहाज वहन क्षमता की बात करें तो इसमें भी भारत का योगदान बहुत ही मामूली है। दिसंबर 2023 तक, वैश्विक जहाज स्वामित्व में भारत का हिस्सा केवल 1.2 फीसदी है, जबकि ग्रीस का 17.8, चीन का 12.8 और जापान का 10.8 फीसदी है। इसके अलावा दुनिया के केवल 0.77 फीसदी जहाज ही भारतीय ध्वज के तहत पंजीकृत हैं। भारत की समुद्री परंपरा दुनिया की सबसे प्राचीन परंपराओं में से एक है।
भारत के उच्च औद्योगिक विकास एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हमारी 7500 किलोमीटर लंबी तटरेखा और हिंद महासागर में केंद्रीय स्थिति की विशेष भूमिका रही है। सिंधु घाटी सभ्यता के साक्ष्य लोथल में बंदरगाह और मेसोपोटामिया के साथ व्यापार को दर्शाते हैं, जहां सूती वस्त्र, मनके और हाथीदांत का धातुओं और घोड़ों के बदले आदान-प्रदान होता था। वैदिक काल में भी, समुद्री यात्रा सुप्रसिद्ध थी, ऋग्वेद और महाकाव्यों में जहाजों और यात्राओं का वर्णन मिलता है। मौर्य काल (321-185 ईसा पूर्व) तक, समुद्री व्यापार राज्य द्वारा नियंत्रित था, जैसा कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में देखा जा सकता है। ताम्रलिप्ति, भरूच और सोपारा जैसे बंदरगाह भारत को भूमध्य सागर और दक्षिण-पूर्व एशिया से जोड़ते थे। दक्षिणी राजवंशों, विशेषकर चोलों (9वीं-13वीं शताब्दी) ने एक दुर्जेय नौसेना का निर्माण किया। मध्यकाल (13वीं-15वीं शताब्दी) में, कालीकट, कैम्बे और सूरत जैसे बंदरगाह हिंद महासागर क्षेत्र में फल-फूल रहे थे, जो अरब, फारसी और चीनी व्यापारियों को आकर्षित कर रहे थे। भारत मसालों, वस्त्रों और रत्नों का निर्यात करता था, जबकि घोड़े, सोना और चांदी का आयात करता था।
1498 में पुर्तगालियों के आगमन के साथ, भारत का समुद्री प्रभुत्व कम हो गया, क्योंकि यूरोपीय शक्तियों ने धीरे-धीरे मसाला व्यापार पर एकाधिकार कर लिया। लेकिन औपनिवेशिक शासन से पहले सहस्राब्दियों तक, भारत एक समुद्री महाशक्ति बना रहा, जिसने पूरे एशिया और उसके बाहर व्यापार, संस्कृति और सभ्यता को प्रभावित किया। हाल ही में, केंद्र सरकार ने भारत में जहाज निर्माण को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की हैं और कई नीतिगत उपाय भी लागू किए हैं। उम्मीद है कि जल्द ही बड़े जहाज निर्माण को बुनियादी ढांचा का दर्जा दिया जाएगा, जिससे कंपनियों को बेहतर शर्तों पर वित्तपोषण प्राप्त हो सकेगा। इससे भारत में जहाज निर्माण में आसानी होगी और भारतीय शिपयार्ड संचालन को बढ़ावा मिलेगा। जहाज निर्माण और संबंधित बुनियादी ढांचे के लिए दीर्घकालिक, कम लागत वाला वित्त प्रदान करने हेतु 250 अरब रुपए (लगभग 2.9 अरब डॉलर) का एक समर्पित कोष भी शुरू किया गया है। जहाज निर्माण और जहाज तोडऩे में उपयोग होने वाले इनपुट पर आयात शुल्क अगले 10 वर्षों के लिए माफ कर दिया गया है, जिससे घरेलू कंपनियों की लागत कम हो गई है। शिप-ब्रेकिंग क्रेडिट नोट योजना एक पहल है, जो क्रेडिट नोट जारी करके भारतीय यार्डों में पुराने जहाजों को तोडऩे के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे बेड़े के नवीनीकरण को बढ़ावा मिलता है और स्थिरता को बढ़ावा मिलता है। भारत के 7500 किलोमीटर से ज्यादा लंबे समुद्र तट को देखते हुए, समुद्री क्षेत्र भारत के व्यापार के लिए महत्वपूर्ण है। आज, मात्रा के हिसाब से 95 प्रतिशत और मूल्य के हिसाब से 70 प्रतिशत व्यापार समुद्री मार्गों से होता है। फिर भी, अपने सामरिक महत्व के बावजूद भारत जहाजों के लिए विदेशी देशों पर बहुत अधिक निर्भर है, जिसके परिणामस्वरूप परिवहन लागत बढ़ रही है और यह हमारे सामरिक हितों के भी विरुद्ध है। भारत का जहाज निर्माण उद्योग न केवल समुद्री व्यापार के लिए, बल्कि देश की रक्षा तैयारियों के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसमें परिवहन, रक्षा और वाणिज्य के लिए उपयोग किए जाने वाले जहाजों का निर्माण, मरम्मत और रखरखाव शामिल है।
हाल ही में विकास : भारत का जहाज निर्माण उद्योग 2022 में लगभग 9 करोड़ अमरीकी डॉलर से बढक़र 2024 में 1.12 अरब अमरीकी डॉलर हो गया है, और अनुमान है कि 2033 तक यह उद्योग अरब अमरीकी डॉलर तक पहुंच सकता है, जो कि 60 फीसदी की उल्लेखनीय वृद्धि है। हालांकि, देश अभी भी वैश्विक जहाज निर्माण क्षेत्र में बहुत छोटा स्थान रखता है। 1 फीसदी से भी कम बाजार हिस्सेदारी के साथ 22वें स्थान पर है। इसकी तुलना में, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान मिलकर वैश्विक जहाज निर्माण बाजार के 93 फीसदी हिस्से पर कब्जा बनाए हुए हैं। सरकार का लक्ष्य है कि भारत 2030 तक शीर्ष 10 जहाज निर्माण राष्ट्रों में शामिल हो जाए, और मैरीटाइम इंडिया विजन 2030 और अमृत काल विजन 2047 के तहत 2047 तक भारत शीर्ष 5 में शामिल होने की आकांक्षा रखता है। लेकिन इस क्षेत्र में एक महाशक्ति होना कोई आसान काम नहीं है। सबसे पहली चुनौती उच्च बुनियादी ढांचा लागत की है। जहाज निर्माण एक पूंजी प्रधान उद्योग है जिसके लिए शिपयार्ड में महत्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है। लंबी परिपक्वता अवधि और अनिश्चित प्रतिफल के कारण, यह क्षेत्र कई निवेशकों को जोखिम भरा लगता है। दूसरे, लंबे समय तक इस उद्योग में अधिक गतिविधि न होने के कारण भारत में प्रौद्योगिकी पुरानी है और कुशल जन शक्ति का अभाव है, जिसके कारण वैश्विक प्रतिस्पर्धा कठिन हो जाती है।
तीसरे, इस क्षेत्र में आपूर्ति श्रृंखला व्यवधान भारत में जहाज निर्माण हेतु प्रमुख बाधा है। यह उद्योग इंजन, प्रणोदन प्रणाली और नेविगेशन उपकरण जैसे महत्वपूर्ण घटकों के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर करता है। इससे न केवल लागत बढ़ती है और समय सीमा में देरी होती है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के झटके भी इसे अत्यधिक प्रभावित करते हैं। चौथे, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे प्रतिस्पर्धियों की तुलना में, भारतीय शिपयार्ड को 25-30 फीसदी अधिक लागत का सामना करना पड़ता है। श्रम उत्पादकता, महंगा वित्त और घरेलू स्तर पर उच्च-श्रेणी के स्टील और अन्य सामग्रियों की सीमित उपलब्धता इसके प्रमुख कारण हैं।
जहां इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धियों को मजबूत सरकारी समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त हैं, भारत में पर्यावरणीय नियम, प्रत्यक्ष सबसिडी का अभाव और उच्च ब्याज दरें इस क्षेत्र के विकास में बाधा डाल रही हैं। जहां भारत के लिए अपनी लॉजिस्टिक लागत कम करने और स्वयं को सामरिक दृष्टि से मजबूत बनाने हेतु जहाज निर्माण और जहाजरानी क्षेत्र अत्यंत महत्व का है, इन कमजोरियों के कारण भारत का यह महत्वपूर्ण क्षेत्र विकास से अछूता रह गया, उन्हें दुरुस्त करने की आवश्यकता है। यह क्षेत्र स्वदेशी युद्धपोतों के निर्माण, उन्नत तकनीकों को अपनाने और विदेशी सैन्य उपकरणों पर निर्भरता कम करने की ओर एक महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। बहरहाल, जहाज निर्माण और मरम्मत के बुनियादी ढांचे में निवेश और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों के साथ रणनीतिक साझेदारी की आवश्यकता होगी।
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