शाम की ख्वाहिशें


शाम की ख्वाहिशों को, कभी तो चैन आये,
कि भटकते मुसाफिर को, दहलीज कोई बुलाये।
बातों की ज़िद हो ऐसी, कि खामोशी भी मुस्कुराये,
हवाएँ भीगे दुपट्टे को, परों पर अपनी उड़ाए।
नजदीकियों की कशिश में, दूरियां खुद को ही मिटाये,
खोयी चाहतों की संदूक से, एक सपना कभी चुराए।
इंतज़ार के लम्हात ना हो, यूँ क़दमों की आहटें छाये,
जो छूट गयी वो आदतें, कभी मिलकर हमें रुलाये।
पत्थर हुई नजरों को, कभी नज़ारे तो आ सहलाये,
और मोहब्बत अलविदा कहकर, मासूमियत की उम्र लौटाए।
घर लौटते परिंदे कभी तो, वो क्षितिज हमें दिखाए,
जहां जगमगाते सितारों को, कोई दुआ ना तोड़ पाए।
धड़कनों में उठती बेचैनियां, आँखों को ना सताये,
हकीकत के आसमां तले, कभी तो मुलाकाते हमें भरमायें।
ये धुंधली लकीरें कभी तो, एक शाम ऐसी सजाये,
कि सुकूं भरे लम्हों में, सिरकतें यादों की ना हो पाएं।
--------------------
- मनीषा मंजरी, दरभंगा।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts