जातीय जनगणना से कितना फायदा-कितना नुकसान
नयी दिल्ली,एजेंसी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने जातिगत जनगणना करवाने की लंबे समय से चली आ रही मांग को हरी झंडी दिखा दी है। जातीय जनगणना की घोषणा को देश की विपक्षी पार्टियां अपनी जीत बता रही हैं। खासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टियों का कहना है कि केंद्र पर उनके लंबे समय से चले आ रहे दबाव के कारण इसकी घोषणा की गई है। जानते है कि जातिगत जनगणना के पक्ष और विपक्ष में क्या-क्या तर्क दिए जाते रहे हैं।
सबसे पहले तो यही सवाल खड़ा होता है कि जातिगत जनगणना क्या है। इसका सीधा सा जवाब है देश में रहने वाले अलग-अलग जाति के लोगों की गिनती। यानी ऐसी जनगणना जिससे देश में किस जाति के कितने लोग रहते हैं, उनकी गिनती कर स्पष्ट रूप से आंकड़े सामने रखे जाएं।
भारत में जातिगत जनगणना पहली बार होने जा रही है, ऐसा भी नहीं है. हालांकि, पहले हुई जातिगत जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को शामिल नहीं किया जाता था। इसलिए अब जब भी जातिगत जनगणना की चर्चा होती है, तो सबसे बड़ा सवाल यही रहता है कि अन्य पिछड़ा वर्ग अब देश में कितना बड़ा बन चुका है। इस समाज के कितने लोग अब देश में रह रहे हैं। ऐसे में जब अब जातिगत जनगणना कराई जाएगी, तो सभी की नजरें इस बात पर होंगी कि देश में ओबीसी कितने प्रतिशत हैं।
ऐसी जनगणना की जरूरत क्यों?
वास्तव में देश में जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, तब बताया गया था कि देश में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 52 फीसदी है। हालांकि, तक प्रधानमंत्री वीपी सिंह की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने 52 फीसदी का जो आंकड़ा दिया था, वह साल 1931 की जनगणना पर आधारित था। इसलिए इसके सटीक होने पर सवाल उठने लगे। कहा गया कि वक्त के साथ देश में ओबीसी आबादी भी बदल चुकी है। इसे काफी बढ़ोतरी हुई है। इसलिए सरकार के आंकड़े को सही नहीं माना जा सकता। दरअसल, जातिगत जनगणना के पक्षधर राजनीतिक दल वास्तव में चाहते थे कि जातिगत जनगणना कराई जाए। इसलिए वे इस आंकड़े को कम मानते हुए इस स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
जातिगत जनगणना के पक्ष में दिए जाते हैं ये तर्क
जातिगत जनगणना का समर्थन करने वालोंं का मानना है कि इसके जरिए पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के बारे में बहुत कुछ पता चल सकेगा। उनकी शैक्षणिक के साथ ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के बारे में सबकुछ स्पष्ट हो सकेगा। साथ ही साथ जातिगत जनगणना के बाद आंकड़ों में स्पष्टता आएगी। इसके बाद सरकार इन वर्गों के लिए और मजबूत नीतियां बना पाएगी। आवश्यकता पड़ने पर उनकी समुचित सहायता की जा सकेगी। फिर सर्वोच्च अदालत ने भी अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया है कि शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है।
भेदभाव दूर करने की पहल
एक तर्क यह भी दिया जाता है कि देश के कई क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव अब भी किया जाता है। ऐसे में जातिगत जनगणना से वंचित समूहों की पहचान होगी। इसके जरिए हाशिए पर छोड़े गए अलग-अलग जातियों के समूहों की सामाजिक असामानता दूर की जा सकेगी। ओबीसी ही नहीं, अन्य सभी जाति समूहों की सटीक संख्या जाने बिना उनके लिए सामाजिक और आर्थिक स्थिति और जरूरतों के बारे में जानकारी नहीं हो सकती। इसलिए उनके समावेशी विकास के लिए यह जरूरी है।
साल 2023 में बिहार में जातिगत जनगणना कराई गई थी। इसमें पता चला कि 84 फीसदी आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति की है। कहा जा रहा है कि इससे सरकार को इनके लिए नीतियां बनाने में आसानी होगी।
विपक्ष में दिए जाते हैं ये तर्क
दूसरी ओर जातिगत जनगणना का विरोध करने वालों का तर्क है कि अगर जातिगत जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी अधिक निकली तो सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय की गई आरक्षण की सीमा पार करनी पड़ेगी। इससे ओबीसी को और भी ज्यादा आरक्षण मिलेगा। यही नहीं, कुछ लोगों का तर्क यह भी है कि ऐसी किसी भी जनगणना से देश में जातियों में और अधिक बंटवारा हो जाएगा। जातिगत जनगणना के विरोधियों का यह भी तर्क है कि जाति के आधार पर भेदभाव वैसे ही अवैध है। ऐसे में जातिगत जनगणना कराई जाती है तो यह जाति व्यवस्था को और मजबूती ही देगी। इन लोगों का कहना है कि जाति के आधार पर बांटने के बजाय देश के सभी नागरिकों को व्यक्तिगत अधिकार और समान अवसर देने पर ध्यान देना चाहिए।
अंग्रेजों के समय से चली आ रही ऐसी गणना
अंग्रेजों के समय में ही जातिगत जनगणना शुरू हो गई थी। आखिरी बार साल 1931 में पूर्ण जातिगत जनगणना कराई गई थी। तभी यह तय कर दिया गया कि हर 10 साल में जाति आधारित जनगणना कराई जाएगी। साल 1941 में जातिगत जनगणना कराई गई पर आंकड़े तब सामने नहीं रखे गए। तब तर्क दिया गया था कि जाति आधारित तालिका ही तैयार नहीं हो पाई थी। देश की आजादी के बाद साल 1951 में एक बार फिर से जातिगत जनगणना करवाई गई थी। हालांकि, इसमें तब अन्य पिछड़ा वर्ग को शामिल ही नहीं किया गया था। साल 1961 से 2001 तक की जनगणना में जातियों के आधार पर गणना नहीं कराई। 2011 में जातियों का सामाजिक-आर्थिक आंकड़ा जुटाया गया पर इसे सार्वजनिक नहीं किया गया।
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