जहर घोलता माइक्रोप्लास्टिक

इलमा अज़ीम 
हमारे जीवन में जहर घोल रहे माइक्रोप्लास्टिक के हवा व पेड़-पौधों पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर भी कई अध्ययन सामने आए हैं। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जतायी गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण सांसों के जरिये हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। 
सर्वविदित है कि देश के नीति-नियंताओं की कार्यस्थली दिल्ली दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी है। कमोबेश देश के कई अन्य शहर भी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल हैं। प्रदूषण के कारण प्लास्टिक कण हमारी जीवन प्रत्याशा को घटा रहे हैं और कैंसर जैसे कई घातक रोग साथ में दे रहे हैं। विडंबना देखिये न तो सरकारें इस गंभीर संकट के प्रति सचेत हैं और न ही अपने स्वास्थ्य के प्रति जनता जागरूक है। 


हीं मुफ्त की रेवड़ियों की आस रखने वाले मतदाता इस गंभीर संकट को चुनावी मुद्दा बनाने की बात कभी नहीं करते। संकट तो यहां तक बढ़ गया है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है। दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है।


 इस तरह माइक्रोप्लास्टिक की दखल भोजन, हवा व पानी में होना मानव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे की घंटी ही है। जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश में सिंगल यूज प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध के बावजूद ये खुलेआम बिक क्यों रहा है? दुकानदारों व उपभोक्ताओं को तो इसके उपयोग पर दंडित करने का प्रावधान है, लेकिन सिंगल यूज प्लास्टिक उत्पादित करने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता? संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं,लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं। यह संकट हमारी जिम्मेदार नागरिक के रूप में भूमिका की जरूरत भी बताता है।
 लेखिका एक  स्वत्रंत पत्रकार 

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