शिक्षा के स्तर के नतीजे से सबक

 राजीव त्यागी 

गैर-सरकारी संगठन प्रथम द्वारा जारी की जाने वाली वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (असर) आमतौर पर एक गंभीर रिपोर्ट मानी जाती है जो भारत के स्कूलों में सीखने के अंतर का जायजा लेती है। उम्मीद के मुताबिक महामारी के दौरान लंबे समय तक स्कूलों के बंद रहने से स्थिति और भी खराब हो गई। हालांकि, मंगलवार को जारी नई रिपोर्ट के नतीजे कई मायने में उत्साहजनक हैं। इसके मुताबिक भले ही स्कूलों में सीखने में व्यापक अंतर मौजूद है लेकिन इस सर्वेक्षण के अनुसार कई सकारात्मक निष्कर्षों तक पहुंचा जा सकता है और देश को अब इस पर तवज्जो देने की आवश्यकता है।

पहला, ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक महामारी के दौरान सीखने के स्तर में जो कमी देखी गई थी अब वह दुरुस्त हो गई है। दूसरा, प्री-प्राइमरी के स्तर पर महत्त्वपूर्ण सुधार देखा गया है। तीसरा, अब 14-16 वर्ष की उम्र के बच्चों में डिजिटल जागरूकता का स्तर अपेक्षाकृत अधिक है। असर 2024, एक राष्ट्रव्यापी ग्रामीण परिवारों पर आधारित एक सर्वेक्षण है जिसके तहत देश के 605 जिले के 350,000 घरों और करीब 650,000 बच्चों से संपर्क किया गया। इस सर्वेक्षण में करीब 18,000 गांव और 15,000 से अधिक स्कूल शामिल थे। रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया कि शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के तहत अनिवार्य रूप से 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के तय नामांकन लक्ष्य को लगभग हासिल कर लिया गया है।

इस उम्र वर्ग के लगभग 1.9 प्रतिशत बच्चे स्कूल में नहीं हैं जो 2022 के 1.6 प्रतिशत से थोड़ा अधिक है। हालांकि, रुझान दर्शाते हैं कि आरटीई के तहत बच्चों के जिस उम्र समूह को शामिल नहीं किया जाता है उनमें भी स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों का अनुपात समय के साथ घट रहा है। जहां तक सीखने से जुड़े नतीजों की बात है, उस लिहाज से न केवल महामारी के दौरान हुए नुकसान की भरपाई हुई है बल्कि कुछ मामलों में नतीजे पहले की तुलना में बेहतर हैं। उदाहरण के तौर पर, कक्षा 5 के बच्चों का अनुपात जो बेहद बुनियादी भाग (तीन अंकों को एक अंक से भाग देना) करना जानते हैं उनकी तादाद 2018 में 27.9 प्रतिशत थी जो 2022 में घटकर 25.6 प्रतिशत हो गई थी। हालांकि 2024 में ऐसे बच्चों की तादाद बढ़कर 30.7 प्रतिशत हो गई जो 2014 में ऐसे बच्चों की 26.1 प्रतिशत की तादाद से बहुत अधिक है। इसी तरह के रुझान अन्य पहलुओं में भी देखने को मिले और यह सुधार सरकारी स्कूलों की बदौलत देखा गया।


रिपोर्ट में एनईपी की भूमिका और इसमें बुनियादी साक्षरता के साथ-साथ गणना से जुड़े पहलुओं पर जोर देने के कारण बेहतर परिणाम दिखने की बात का जिक्र है। पिछली योजनाओं से उलट राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं जिसकी वजह से ऐसे नतीजे दिख रहे हैं। अधिकांश स्कूलों को इस संबंध में दिशानिर्देश दिए गए हैं और शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया गया है। प्री-प्राइमरी स्तर पर भी नामांकन में अहम बदलाव देखा गया है। उदाहरण के तौर पर, तीन साल के बच्चों में, नामांकन का स्तर 2018 में 68.1 प्रतिशत था जो 2024 में बढ़कर 77.4 प्रतिशत हो गया है। आंगनबाड़ी केंद्र इस उम्र वर्ग के बच्चों के लिए सबसे ज्यादा काम करते हैं। यह एक स्वागत योग्य रुझान है। नामांकन बढ़ने से बच्चे न केवल औपचारिक स्कूली शिक्षा के लिए तैयार होंगे बल्कि इससे टीकाकरण और इससे जुड़े सभी पहलुओं की दिशा में काम करते हुए उनके समग्र विकास में योगदान दिया जा सकेगा।

इसके अलावा, असर ने पहली बार अपने सर्वेक्षण में 14-16 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच डिजिटल साक्षरता के बिंदु को शामिल किया। लगभग 90 प्रतिशत बच्चों ने घर पर स्मार्टफोन होने और 80 प्रतिशत से अधिक ने इसका इस्तेमाल करने की जानकारी दी। इस उम्र के बच्चों में खुद को ऑनलाइन रखते हुए सुरक्षित रखने के बुनियादी तरीकों से जुड़ी जागरूकता भी अपेक्षाकृत अधिक थी।


स्मार्टफोन की बड़े स्तर पर उपलब्धता से शिक्षा में तकनीक के इस्तेमाल के अवसर भी मिलते हैं। व्यापक तौर पर नए सर्वेक्षण में कई सकारात्मक बातें हैं लेकिन इसके बावजूद नीति निर्माताओं और बाकी हितधारकों को अधिक उत्साहित नहीं होना चाहिए। इस रिपोर्ट के डेटा कुछ मौजूदा अंतर के स्तर को दर्शाते हैं। उदाहरण के तौर पर सुधार के बावजूद, कक्षा 5 के 50 फीसदी से अधिक बच्चे, कक्षा 2 के स्तर के पाठ को नहीं पढ़ सकते थे। मौजूदा आर्थिक माहौल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की जरूरत को कम करके नहीं आंका जा सकता है क्योंकि भारत की दीर्घकालिक समृद्धि और बेहतरी इस पर ही निर्भर  है। 

 लेखक एक स्वत्रंत पत्रकार -

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