मतदाताओं की खामोशी

 इलमा अजीम 
चुनावी दौर में मतदाताओं की खामोशी तथा प्रजातंत्र की ताकत युवा वेग के चेहरे पर उदासीनता की झलक जम्हूरियत की तबीयत को नासाज कर देगी। बढ़ती जनसंख्या तथा बेरोजगारी देश में सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकती है। 18वीं लोकसभा के लिए हो रहे सियासी संग्राम का परिणाम चार जून 2024 को ईवीएम से बाहर आएगा। क्रिकेट व सियासत का आपस में गहरा नाता तथा समानताएं रही हैं। दोनों ही खेल धनबल, कूटनीति व रणनीति से लबरेज तथा आम लोगों की पहुंच से दूर हैं। चुनाव हों या आईपीएल सरीखे टूर्नामेंट, हजारों करोड़ रुपए दांव पर लगे होते हैं। नतीजों को लेकर अटकलों का बाजार भी गर्म रहता है। जिस प्रकार क्रिकेट लोकप्रियता की बुलंदी पर काबिज हो चुका है, ठीक उसी प्रकार सियासत भी राष्ट्रीय खेल का रूप ले चुकी है। कई पूर्व नौकरशाह, सिल्वर स्क्रीन के अदाकार, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी तथा मजहब के रहनुमां देश का पसंदीदा खेल बन चुकी सियासत में किस्मत आजमा कर जम्हूरियत की पंचायतों की शोभा बढ़ा चुके हैं तथा कई पहुंचने को बेताब हैं। बेशक प्रजातंत्र का सरमाया देश का शिक्षित वर्ग बेरोजगारी के सैलाब में फंस चुका है। आम लोग आसमान छू रही महंगाई से जूझ रहे हैं। लेकिन बेरोजगारी व महंगाई के बढऩे के कारणों पर कभी तफसील से मंथन नहीं होता। चुनावी प्रचार के दौरान सियासी दल युवाओं को सरकारी नौकरियों के हसीन ख्वाब दिखाते हैं, नतीजतन युवा वर्ग रोजगार के लिए सरकारों पर ज्यादा निर्भर रहते हैं। देश की सियासत ज्यादातर जाति, मजहब, आरक्षण, मुफ्तखोरी की खैरात, आरोप-प्रत्यारोप, दलबदल, चुनावी मंचों से जहरीली तकरीरें व विवादित बयानबाजी की तवाफ करती है, जबकि आम लोगों की कई समस्याएं चुनावी शोरगुल में दब कर रह जाती हैं। सरकारी शिक्षा व्यवस्था बदहाली के दौर से गुजर रही है। सरकारी अस्पताल विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं। भ्रष्टाचार सिस्टम में पैर पसार चुका है। रोजगार की तलाश में प्रतिभाएं देश से पलायन कर रही हैं। नशे के सरगना युवा पीढ़ी का मुस्तकबिल बर्बाद कर रहे हैं। लाखों गोवंश सडक़ों पर अपना भाग्य कोस रहा है। अत: प्रजातंत्र के इन मुद्दों पर भी सियासी नजर-ए-करम की जरूरत है। सियासत में जोर आजमाईश का मकसद केवल सत्ता की दहलीज पर पहुंचने के लिए नहीं होना चाहिए।

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