कचहरी के तारीखों में जिंदगी
समाज संस्कृति दिखावे
और देह का जो रिश्ता
था हमारा,
अब कचहरी के तारीखों
में तब्दील हो गए है,
देखी हूँ मैं उस रिश्ते में
हवस की भूख और बढ़ते
दरिंदगी अपनी सीमाओं
को लांघती और समाज
की मनगढ़ंत रीति-रिवाजों
को पनपते हुए,
अब उस रिश्ते की बहस
वकील की दलीलों में
सिमट सी गई है,
देखी हूँ मैं उस रिश्ते में
खुद को लांछनों की बेड़ियों
में जकड़ी हुई,और पीड़ाओं
की अग्नि में जलते हुए
चरित्र पे लगाएं गए कलंक
की लकीरें को माथे पे खिंचते
अब वो न्यायालय में लगे
कटघरो में खड़े रह गए है।।
- लवली आनंद
मुजफ्फरपुर, बिहार।
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