ओंकार के मार्ग पर चलना ही है सहज योग
- सत्येंद्र प्रकाश तिवारी
ज्ञानपुर, भदोही (उप्र)।
सवाल है कि क्या परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए गुरु का होना जरूरी है? संत दादू के शिष्य रज्जब इसका बहुत साफ जवाब देते हैं- ‘गुरु बिन गम्य न पाइए।’ अगर कोई पथ-प्रदर्शक न हो, तो भटकने की संभावना रहती है क्योंकि राह पर होने के लिए तीन बातें होनी बहुत जरूरी हैं। पहली, आंखें होनी चाहिए। दूसरी, प्रकाश होना चाहिए और तीसरी बात, मानचित्र होना चाहिए। पथ का ज्ञान यानी यह पता होना चाहिए कि जाना बाहर नहीं, भीतर है। अन्तर्यात्रा करनी है। लोगों के पास वो आंख नहीं है, जो भीतर देख सके। वो प्रकाश नहीं है, जो भीतर मार्ग को आलोकित कर सके और पथ का ज्ञान नहीं है। भीतर के मानचित्र का बिल्कुल पता नहीं है।
इसलिए कबीर भी यही कहते हैं- गुरु बिनु माला फेरता, गुरु बिनु करता दान। गुरु बिनु सब निस्फल गया, बूझौ बेद पुरान।। माला फेरते रहो, दान करते रहो। अगर गुरु नहीं है, तो सब निष्फल हो जाता है। राजस्थान के दरिया साहब कहते हैं- दरिया सतगुरु सब्द सौं, मिट गई खैंचातान।। भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निरबान।। ये जो ओंकार का ज्ञान है, ये जो गुरु का उपदेश है- शब्द, इससे सब खींचा-तानी मिट जाती है। शब्द दो तरह के हैं- एक तो गुरु का उपदेश और दूसरा वह ओंकार जो परम संगीत के रूप में अस्तित्व में गुंजायमान है।
सद्गुरु के उपदेश से भीतर का अंधेरा और बाहर का भ्रम- दोनों मिट जाते हैं और निर्वाण, समाधि उपलब्ध हो जाती है। कहते हैं रज्जब साहब- रज्जब पंथी पंथ बिन, समझ न उपजै आइ। रज्जब पंथी पंथ बिन, कौर दिसावर जाइ।। अगर तुम अध्यात्म पथ के राही बन भी गए, लेकिन मार्ग का पता न हो, तो कैसे चलोगे उस पर? इसलिए समझ, समझ की आंख और ओंकार का ज्ञान- ये तीनों चाहिए। यह प्रकाश की तरह है। और सुमिरन, समाधि ये पथ हैं। तो तीनों बातें अगर प्राप्त हो जाएं और साथ ही समाधि और सुमिरन के पथ का ज्ञान हो जाए, तो फिर गम्य मिल जाता है, अध्यात्म की मंजिल मिल जाती है।
रज्जब एक और चीज पर जोर देते हैं। कहते हैं, तुम्हें ओंकार का भी ज्ञान हो जाए, समझ भी आ जाए, लेकिन समाधि का ज्ञान अगर न हो, तो फिर बात नहीं बन पाएगी। पथ का ज्ञान अगर न हो, तो उसके बिना मंजिल तक तुम न जा सकोगे। सांस्कृतिक अनुष्ठानों से आंतरिक यात्रा नहीं हो पाएगी। धर्म-अध्यात्म का जो असली आयाम है-भीतर का आयाम- अगर उसको नहीं जानोगे तो केवल संस्कृति के पथ पर जाकर कोई बात नहीं बनेगी। पूरा धर्म तब होता है जब अध्यात्म उसमें जुड़ता है। इसलिए इनके पार जाना होगा। संस्कृति तुम जन्म से ले आये हो। लेकिन जब तक संस्कृति के पार जाने को राजी नहीं हो, तब तक तुम्हारे लिए अध्यात्म का मार्ग नहीं है।
रज्जब कहते हैं, ये हिन्दू, मुसलमान होना छोड़ो। उस सृजनहार को जानो, उस ओंकाररूपी खुदा को, परमात्मा को जानो और उसे जानकर उसकी याद में जीना शुरू करो। नारायण अरु नगर के, रज्जब पंथ अनेक। कोई आवै कहिं दिसि, आगे अस्थल एक।। परमात्मा तक जाने के रास्ते तो बहुत हैं। लेकिन, सारे मार्ग अंत में ओंकार पर जाकर समाप्त हो जाते हैं। जब तक ओंकार को नहीं जानते, तब तक चाहे जितने योग जान लो, सब योग ठीक हैं अपनी-अपनी जगह, लेकिन याद रखना, सारे योग एक दिन विहंगम योग पर, सहज योग पर जाकर समाप्त होते हैं। इसलिए, जिस भी रास्ते से चलो, उस ओंकार को खोजो, जहां से एक ही मार्ग बचता है। उस ओंकार के मार्ग पर चलना ही सहज योग है।

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