बेहतर बने व्यस्था

राहुल गांधी के बयान और अड़ाणी मामले को लेकर संसद में इन दिनों फिर से हंगामा बरपा है। असल में पिछले दिनों राहुल गांधी को इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में आमंत्रित किया गया था जहां उन्होंने भारत की वर्तमान स्थिति के बारे में भाषण दिया था। फिर ब्रिटिश संसद में भी उन्हें बुलाया गया और वहां भी उन्होंने कुल मिलाकर वही सब दुहराया जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय में कहा था। 'वही सब' अर्थात भारत में जनतंत्र के लिए उत्पन्न 'खतरों' की गाथा। देखा जाये तो इस गाथा में ऐसा कुछ नया नहीं था जो राहुल गांधी ने देश की संसद में, और देश की सड़कों पर नहीं कहा है। अपनी 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान भी राहुल कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक इस बात को दुहराते रहे हैं कि देश की सरकार जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों को अंगूठा दिखा रही है, विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जा रहा, देश की स्वायत्त संस्थाओं का दुरुपयोग किया जा रहा है आदि। यही सब उन्होंने ब्रिटेन-यात्रा के दौरान भी कहा है। फिर इस पर आपत्ति क्यों? भारतीय जनता पार्टी की सरकार और पार्टी, दोनों को आपत्ति यह है कि विदेश में जाकर इस तरह की आलोचना देशहित में नहीं है! इसके जवाब में कांग्रेस पार्टी की ओर से दो बातें कही गयी हैं- एक तो यह कि सरकार देश नहीं होती, सरकार की आलोचना देश की बुराई करना नहीं होती और दूसरी यह कि यदि ऐसा करना अपराध है तो हमारे प्रधानमंत्री स्वयं अमेरिका, जर्मनी जैसे देशों में जाकर पिछली सरकारों और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में प्रतिकूल भी कहते रहे हैं। यही नहीं, प्रधानमंत्री पिछले आठ-दस साल में हर मंच पर यह कहते रहे हैं कि 75 साल में देश में कोई विकास नहीं हुआ, देश का असली विकास वर्ष 2014 से ही शुरू हुआ है। बहरहाल, कैंब्रिज विश्वविद्यालय में, और ब्रिटेन की संसद में भी राहुल गांधी ने जो कुछ कहा है, उसे ग़लत न मानते हुए भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस मौके पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी से कुछ बेहतर कर सकते थे। उदाहरण के लिए यह मौका था जब वे देश की वर्तमान सरकार की रीति-नीति की खामियों को सामने लाने के साथ-साथ अपनी पार्टी कांग्रेस की ओर से एक वैकल्पिक व्यवस्था सामने रखते। राहुल गांधी ने ब्रिटेन में अपने भाषणों में यह सब नहीं कहा। पर जो कहा वह ग़लत नहीं था। आज हकीकत यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के बाद लोकप्रियता के पायदान पर राहुल गांधी ही खड़े हैं। सत्तारूढ़ दल की की रीति-नीति चलाने वाले भी इस बात को समझ रहे हैं। इसलिए उनका हर संभव प्रयास रहता है कि वे राहुल गांधी को कमतर दिखायें। राजनीतिक समीकरण भी कुछ ऐसे हैं कि स्थितियां आसानी से बदलती नहीं दिख रहीं। पर जनतंत्र की सफलता का तकाज़ा है कि स्थितियां बदलें। यह काम अपने आप नहीं होगा, करना पड़ेगा इसे। सरकार की कमजोरियां बताने के साथ-साथ देश को यह समझाने की भी आवश्यकता है कि बेहतर व्यवस्था कैसे बनेगी।

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