माघ लाया सर्द हवाओं का झोंका

- डा. ओपी चौधरी
पूस तो समाप्त हो गया अब माघ शुरू है। कहावत है की "आधे माघे,कंबल कांधे" लेकिन इस समय पूरे उत्तर भारत और पर्वतीय क्षेत्रों में कड़ाके की ठंड पड़ रही है। सर्द हवाएँ उफान पर हैं। ठिठुरन गजब का जुल्म ढा रही है। कुछ लोग तो अपने-अपने घरों में रजाई-कम्बल ओढ कमरे में रूम हीटर/ब्लोअर लगाकर बिस्तर पर दुबके हुये हैं।
पहले और अभी भी कुछ लोग बोरसी का प्रयोग करते हैं। आग भी जला लेते हैं किसी लोहे के तसले में। करना कुछ भी नहीं है। लेकिन हुक्म चला रहें हैं क्यों क्या हुआ अभी तक चाय नहीं आई? उधर से आवाज आती है-काम के न धाम के,करना -धरना कुछ नहीं है। केवल हुक्म बजाना है। अभी काम वाली नहीं आई है। आएगी तब बर्तन आदि साफ- सफाई  करेगी फिर चाय बनेगी । तब पी लेना। बहुत जल्दी है तो खुद ही-------हां एक कप मुझे भी दे देना।
ऐसा अब कुछ घरों में होने लगा है। बाकी तो काम वाली पर भी यह बेरहम सर्दी अपना सितम ढा ही रही है। लेकिन क्या करे उसकी भी मजबूरी है, नहीं तो मेम साहब लोग उस दिन की दिहाड़ी काट लेती हैं। जो रोज कमाते हैं तो उनके घर-परिवार का खर्चा चलता है। ऐसे  लोग सुबह-सुबह उठकर सब्जी का ठेला लेकर,कबाड़ खरीदने वाले साइकिल चलाकर आवाज लगाते हुए निकल ही रहे हैं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले भी साइकिल उठाकर अपनी रोजी-रोटी के लिए शहर की ओर इस कड़ाके की ठंड में दौड़ लगा रहे हैं,कई बार काम भी नहीं मिल पाता है,शाम को मायूस होकर घर आ जाते हैं।


छोटे बच्चों का तो विद्यालय बंद हो जा रहा है। बड़े बच्चों को सरकार में बैठे लोग सोचते हैं कि उन्हें ठंढक नहीं लगती है। इसलिये उनका विद्यालय आज भी खुला हुआ है। यह हकीकत पता होते हुए भी कि  हिन्दुस्तान में रहने वाले 60 प्रतिशत बच्चों के पैरों में हवाई चप्पल ही रहती है। उनके तन-बदन पर केवल उसे ढकने वाले वस्त्र ही रहते हैं। विद्यालय बंद रहेगा,परन्तु अध्यापक को सरकारी अधिकारी फरमान जारी कर देगा कि  उसे तो विद्यालय जाना ही।
ऐसी स्थिति में कुछ छोट भइये अधिकारियों की चांदी हो जाती है--'। वह अपने अंदर गर्मी पैदा करने के लिए दौरा----। सरकारों द्वारा हर साल फरमान जारी किया जाता है कि-जगह-जगह अलाव की व्यवस्था जिला प्रशासन करे। लेकिन हकीकत से सभी लोग वाकिफ हैं। अलाव और आश्रय स्थलों की व्यवस्था कागजों पर चुस्त-दुरुस्त है। फिर भी कड़ाके की सर्दी और ठंढ के कारण लोग मर रहे हैं।
विकास-विकास- विकास, ले विकास, दे विकास, कर विकास, अब भोग विकास, विकास का कहर देख लीजिए, विकास की अति का दुष्परिणाम जोशीमठ, उत्तराखंड में देखिए, इससे पूर्व केदारनाथ में अन्य जगहों पर। भूस्खलन, बादल फटना, सूखा, बाढ़, महामारी सभी कुछ विकास की अन्धी दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग के कारण है। प्राकृतिक संसाधनों का हमने अनियंत्रित रूप से भरपूर दोहन किया है। यह सब कुछ उसी का दुष्परिणाम भोगना पड़ रहा है।
अभी भी समय है, सावधान हो जाने की ज्यादा अति करने की जरूरत नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, लेकिन लालच की नहीं। हमने अपनी आवश्यकता से अधिक प्राकृतिक साधनों का दुरुपयोग किया है,बिना सोचे समझे और जाने।हमें पर्यावरण संरक्षण की ओर अधिक ध्यान देने के साथ ही विकास के नए मानक तय करने होंगे,जिससे प्रकृति को कम से कम नुकसान पहुंचाए। हमें अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना चाहिए और उनका भरपूर संरक्षण। तभी धरती बचेगी, हम बचेंगे, जीव जंतु, वनस्पतियां बचेगी।
          इस मौसम में जरूरी है कि समय समय पर हल्का गुनगुना पानी पीते रहें।ज्यादा देर खाली पेट न रहें।सुबह कोहरे में बाहर न निकलें।सूर्योदय के पश्चात ही पूरे कपड़े पहनकर ही घर से बाहर निकलें।शारीरिक श्रम किसी भी रूप में अवश्य ही करें।जाड़े के मौसम में मोटे अनाज जैसे ज्वार,बाजरा,मक्का, जौ आदि तथा गुड़ का सेवन अवश्य करें।यदि मौसमी फल खा सकें तो और भी अच्छा है।बचाव में ही सुरक्षा और जीवन रक्षा है।
- प्रो.एवम अध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।

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