पर्यावरण संरक्षण और जीविका


हर साल सर्दी की दस्तक के साथ देश की राजधानी व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भयावह प्रदूषण का संकट पैदा होता है। उसमें जहां मौसमी बदलाव, पर्वों के पटाखों का प्रदूषण व वाहनों आदि के प्रदूषण की भूमिका होती है, वहीं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले जहरीले धुएं की भी भूमिका होती है। इसीलिये समय-समय पर उद्योगों में हरित ईंधन के इस्तेमाल को जरूरी बनाने को कहा गया, जिसके अनुपालन न करने पर आर्थिक जुर्माने तथा सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें दो राय नहीं कि दीर्घकालीन लाभ के लिये एनसीआर की औद्योगिक इकाइयों को स्वच्छ ईंधन को प्राथमिकता देनी होगी। निस्संदेह, इसके लिये बड़े निवेश की जरूरत होगी। बहुत संभव है कि कुछ औद्योगिक इकाइयां बड़े निवेश न कर पाने की स्थिति में संकटग्रस्त हो सकती हैं, जिसका असर रोजगार की स्थिति पर भी पड़ सकता है। पानीपत में कोयला आधारित उद्योगों के बॉयलर की चिमनियां ठंडी पड़ने के बाद बड़ी संख्या में श्रमिकों के सड़कों पर आने की आशंका उद्योगपति जता रहे हैं। हालांकि, निर्धारित तिथि तक अधिकांश उद्योगों ने वैकल्पिक ऊर्जा की व्यवस्था करने में असमर्थता जताई थी। दरअसल, वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के निर्देश पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों को कोयले, डीजल आदि पारंपरिक जीवाश्म ईंधन के विकल्प के रूप पीएनजी जैसे हरित ईंधन आदि में बदलाव की समय सीमा तीस सितंबर को पूरी हो गई है। इसके बावजूद तमाम उद्योग लक्ष्य पूरा करने में विफल रहे हैं। निस्संदेह प्रदूषण संकट के समाधान के लिये हरित ईंधन का उपयोग अपरिहार्य है। लाखों लोगों के स्वास्थ्य से किसी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता। कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि कोयले से चलने वाले बॉयलरों व बर्नर द्वारा छोड़े जाने वाले जहरीले अपशिष्टों का लोगों के स्वास्थ्य पर खासा प्रतिकूल असर पड़ता है। उल्लेखनीय है कि फरीदाबाद में चौबीस हजार, गुरुग्राम में पंद्रह हजार तथा पानीपत में पच्चीस हजार औद्योगिक इकाइयां काम कर रही हैं।निस्संदेह, ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के संकट से जूझ रही है और प्रदूषित हवा हर साल लाखों लोगों के जीवन पर भारी है, औद्योगिक कार्बन में कटौती के प्रयासों को युद्धस्तर पर चलाने की जरूरत है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्वच्छ हवा सुनिश्चित करने के लिये अदालतों की सक्रियता व ग्रीन ट्रिब्यूनल के प्रयासों से कई महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। विभिन्न सरकारी निकाय कई वर्षों से साफ हवा सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक बुनियादी ढांचा प्रदान करने का प्रयास करते रहे हैं। हालांकि, तमाम औद्योगिक इकाइयां स्वच्छ प्रौद्योगिकी में भारी निवेश को लेकर अपनी असमर्थता जताती रही हैं। वे कई तरह की दलीलें देकर बदलाव की समय सीमा को बढ़ाने का प्रयास करते रहे हैं। वहीं अक्षय ऊर्जा स्रोतों को अपनाने में देरी के मामले अदालतों और हरित न्यायाधिकरण तक पहुंचते रहे हैं। कहा जाता रहा है कि अमीर उद्योगपति इसके लिये तंत्र पर दबाव बनाते रहे हैं। अब देखना होगा कि एक बार आदेशों के अनुपालन की समय सीमा खत्म होने के बाद वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के आदेश पर डिफॉल्टरों के विरुद्ध क्या कार्रवाई होती है। यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि स्वच्छ हवा के मुद्दे पर तो कोई समझौता नहीं किया जा सकता है, लेकिन बड़े पैमाने पर रोजगार संकट भी पैदा नहीं होना चाहिए। दरअसल, फरीदाबाद और गुरुग्राम उद्योग संगठनों ने दलील दी है कि स्वच्छ ईंधन में बदलाव के लिये आवश्यक बीस हजार करोड़ की लागत वहन करने में वे असमर्थ हैं। इसके बावजूद मामले में हमें दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। हमारे सामने ब्रिटेन का उदाहरण आंख खोलने वाला होना चाहिए। इस वर्ष की शुरुआत में एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया था कि ब्रिटेन अपनी ऊर्जा के लिये अरबों पाउंड कम भुगतान कर रहा होता यदि वह एक दशक पहले जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करके स्वच्छ ऊर्जा के विकल्प को चुन लेता। भारतीय उद्योग जगत को स्वीकार करना होगा कि दीर्घकाल में ऊर्जा लागत कम करने में अक्षय ऊर्जा निर्णायक भूमिका निभा सकती है।

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