बापू के विचारों की तरफ लौटना ही होगा

- प्रो. नंदलाल मिश्र
दो अक्टूबर को महात्मा गांधी जी की जयंती है।देश में इनकी जयंती मनाई जाएगी। विविध रूपों में यह आयोजन होगा। बापू वैश्विक महामानव हैं।इन्होंने देश को जो मंत्र दिया वह चिर स्थाई है। देश उनके आशीर्वाद से आगे बढ़ रहा है। लेकिन उनके सर्वोदय के सिद्धांत को लोग भूलते जा रहे हैं।जो देश के लिए हानिकारक है। अंत्योदय और सर्वोदय तभी संभव है जब सभी को काम मिले। गांधी जी का सर्वोदय नैतिकता और आध्यात्मिकता से ओत प्रोत है। यह समता को सामने लाने का प्रयास करता है। यदि लोग सचेतावस्था में इसे स्वीकार कर लें कि वह ईश्वर की संतान हैं जो एक ही तरह से इस संसार में खाली आया था दूसरे भी इसी तरह से आए हैं, अपने साथ वह कुछ भी लेकर नहीं आया, अतः सभी एक समान हुए। मात्र इस भावना के आ जाने से ही आपसी सहयोग सौहार्द्र, और सहिष्णुता की भावना जाग्रत हो जायेगी।यदि ऐसी भावना नहीं आती तो कोई भी सिद्धांत मानव का उद्धार करने में सक्षम नहीं होगा।
इस प्रकार की भावना सभी को अपने मन में लानी होगी चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा क्यों न हो। धन जीने के लिए आवश्यक है जो सभी के लिए जरूरी है और उतना धन सभी के पास हो जिससे वह जी सके। सुख भोगने के लिए धन का संचय अनावश्यक है और दुख से छुटकारा पाने के लिए धन का होना आवश्यक है। अतः सभी व्यक्ति ईमानदारी से श्रम करें यही गांधी जी की सर्वोदयी व्यवस्था है।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या यह व्यवस्था अमल में लाने योग्य है?या यह सिर्फ विचार है। कुछ लोग इस रास्ते पर चलने का प्रयास किए जिनमे विनोवा भावे, जय प्रकाश नारायण प्रमुख थे। विनोबा भावे ने भूदान, ग्रामदान, संपत्ति दान को न्याय का आदर्श बनाया वहीं जयप्रकाश ने समग्र क्रांति, लोक समिति, लोकशक्ति पद्धतियों को अपनाया। कुछ सफलता मिली लेकिन नाम मात्र की। यह प्रयास अद्भुत था। शासन का न तो पूर्ण सहयोग था, न ही शासन ने इसके लिए कोई ठोस योजना बनाई। अधिकांश लोगों ने सर्वोदय को कल्पना माना और यह निर्धारित कर डाला कि यह व्यवहार में लाने योग्य नहीं है।


सर्व प्रथम गांधी जी के सबसे प्रिय अनुयाई प्रथम प्रधान मंत्री पं जवाहर लाल नेहरू ने ही गांधी जी के विचारों को परंपरावादी तथा पुराने ख्यालों का कह डाला।"जो लोग उन्हें नई बात सुझाते हैं उनकी बात वे बहुत धीरज से और ध्यान से सुनते हैं लेकिन इस नम्रता और दिलचस्बी के बावजूद उनसे बातें करने वाले के मन पर यह असर पड़ता है कि मैं एक चट्टान से सिर टकरा रहा हूं। वह यह भी नहीं चाहते की आप लोगों की रहन सहन को एक बहुत मामूली पैमाने से ज्यादा ऊंचा बढ़ाया जाए क्योंकि  अगर लोग ज्यादा आराम से और फुरसत सेरहेंगे तो उससे भोग विलास और पाप की वृद्धि होगी। मेरा मानना है कि यह सब गलत और नुकसान पहुंचाने वाली चीजें हैं जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं। किसानों की सी जिंदगी का आदर्श मुझे जरा सा भी अच्छा नहीं लगता। मैं तो करीब करीब उससे घबराता सा हूं और खुद उनकी सी जिंदगी बर्दाश्त करने के बदले मैं तो किसानों को भी उस जिंदगी में से खींचकर बाहर निकाल लाना चाहता हूं। उन्हें शहरी बनाकर नहीं बल्कि गांवों में शहरों की सांस्कृतिक सुविधाएं पहुचाकर। मानव बुद्धि से काम न लेकर पुराने जंगलीपन की स्थिति में जहां बौद्धिक विकास के लिए कोई स्थान नहीं था पहुंचने की बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आती। हम परिवर्तन की धारा को रोक नहीं सकते न अपने को उस बहाव से निकाल सकते हैं और मनोविज्ञान की दृष्टि से हममें से जिन लोगों ने वर्तमान सभ्यता का स्वाद चख लिया है वे उसे भूलकर पुरानी जंगलपन की स्थिति में जाना पसंद नही कर सकते।
स्वतंत्रता पश्चात देश की बागडोर पंडित नेहरू के पास आई। नेहरू जी के सामने टूटा बिखरा देश था। न जाने कितने झंझावातों को झेलते हुए देशवासी भविष्य के सपने देख रहे थे। नेहरू जी वर्तमान को ध्यान में रखते हुए योजना बना रहे थे । तो क्या नेहरू जी की योजनाओं में गांधी जी के विचार और उनका दर्शन समन्वित नहीं हो सकता था। पर तात्कालिक आवश्यकताओं ने गांधी जी के परिणामी दर्शन को कुछ समय के लिए स्थगित रखा। विशाल भारत के लोगो को आत्मनिर्भर बनाना उनको रोटी कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना तथा विदेशी निर्भरता को समाप्त करना सरकार की पहली जिम्मेदारी थी और पंडित नेहरू ने इसकी शुरुआत की ठीक वैसे ही जैसे किसी नवजात शिशु को सर्वप्रथम शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दूध की आवश्यकता होती है। स्वतंत्र भारत रूपी नवजात शिशु के सामने प्रथम आवश्यकता पेट भरने की थी उस समय समता न्याय और नैतिकता से भारतवासियों का पेट नहीं भर सकता था।
समय और जरूरत के हिसाब से भारत वर्ष आगे तो बढ़ा पर सर्वोदय कहीं पीछे छूट गया। गांधी जी का दर्शन पहेली बनकर कभी आगे तो कभी पीछे छूटता रहा। पर यहां यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत के विकास का रास्ता जब भी गांधीवादी व्यवस्था से अलग हटने का प्रयास करेगा तो कोई न कोई आध्यात्मिक संघ या दल उस रास्ते को अवश्य काटेगा क्योंकि गांधी जी ने कोई ऐसी व्यवस्था नहीं दी थी जो कहीं से अचानक टपक गया हो वरन गांधी जी ने उस सत्य को स्वीकारा था जो भारत की अंतर्निहित शक्ति है।गांधी जी भी यह उम्मीद नहीं किए होंगे कि सर्वोदय का रास्ता आसानी से और शीघ्रता से बन जायेगा क्योंकि सर्वोदय तो अंतिम परिणाम है और किसी राष्ट्र का अंतिम निर्माण थोड़े समय में नही होता।
अमेरिका को यहां तक पहुंचने में लगभग दो सौ पच्चीस साल लग गए जबकि उसका निर्माण एक सीधे रास्ते से गुजरता था फिर भी वह वहां नही पहुंच पाया है जहां वह पहुंचना चाहता था। उसकी बेचैनी परेशानी और महत्वाकांक्षा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमें तो एक कठिन रास्ते से गुजरना है, सत्य की स्थापना के लिए। इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं। इसकी स्थापना और अंतिम निर्माण के रास्ते में साम्यवाद भी आएगा समाजवाद भी आएगा क्रांति भी होगी और उसी से दिशा भी निकलेगी।
आज इक्कीसवीं सदी में हम आगे बढ़ रहे हैं। भूमंडलीकरण खुली बाजार व्यवस्था, निजीकरण, उदारीकरण हमें चाहे अनचाहे पूंजी के इर्द गिर्द चक्कर लगवा रहे हैं। विकास के नाम पर हम जो समझौते कर रहे हैं उससे अमीरी और गरीबी की खाई और चौड़ी होती जा रही है। वैश्वीकरण में प्रतिस्पर्धाएं छलांग लगा रही हैं। बाजार में वही टिकेगा जिसके पास पूंजी है।गरीब सिर्फ टकटकी लगाए देख सकता है उसमें हिस्सा नहीं ले सकता। यदि वह भूलबस ऐसा करता भी है तो कितना गिरेगा उसे अंदाज नही होगा।ऐसे में समता, बंधुता न्याय और नैतिकता का क्या हश्र होगा आप सभी जानते हैं।
तो क्या गांधी जी के विचार कोरे रह जायेंगे। नहीं ऐसा कथमपि नहीं होगा। हमें लौटना पड़ेगा। हमे वहीं आना पड़ेगा जहां से गांधी जी ने शुरुआत करने की बात की है। क्योंकि हम ऐसी संस्कृति और सभ्यता में जी रहे हैं जो लंबे समय तक नंगे नाच को नही देख सकती।हम पश्चिम की तरफ रुख तो किए हैं पर वह संधृत नहीं है। जो संधृत नहीं है वह टिकाऊ भी नहीं है। इस लिए हमें आज नहीं तो कल पूर्व की दिशा में ही मुंह मोड़ना होगा तब हमें यथार्थ का धरातल दिखाई देगा।
(महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि चित्रकूट, सतना)

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