...ताकि नागरिक सजग बनें
आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश में प्रयोगधर्मी वातावरण बनने, बच्चों को प्रयोग करने और असफल होने की इज़ाज़त हो, असफलता को दाग मानने के बजाय सफलता की सीढ़ी माना जाए। असफलता को सम्मान दिया जाए, वरना असफलता से हम इतना डर जाएंगे कि सफलता के लिए प्रयत्न ही बंद कर देंगे। यह कोई राजनीति नहीं है, यह देश की समस्या है और हमें मिलकर सोचना होगा कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में ऐसे क्या सुधार करें कि समाज प्रयोगधर्मी हो सके, हमारे बच्चों का भविष्य सुनहरा बन सके और देश विकसित हो सके। देश में सब कुछ ठीक-ठाक है, गुलाबी-गुलाबी है, बढिय़ा दिखता है, लेकिन सिर्फ तब अगर हम शीर्षासन करें, उलटे होकर देखें, वरना तो यही समझना मुश्किल है कि ठीक करना कहां से शुरू करें। स्वास्थ्य, परिवहन, रोजग़ार, गवर्नेंस, कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जिस पर हम गर्व कर सकें। भ्रष्ट नेता, असंवेदनशील नौकरशाही, अक्षम कार्यकारी, नकारा संसद, महंगा न्याय, कायर बुद्धिजीवी, पूर्वाग्रहगस्त मीडिया और भक्तों या चमचों में बंटे अधिकांश नागरिक। यह सूची अंतहीन है।
कहना मुश्किल है कि हम भारतीय अपने नेताओं से और खुद से क्या चाहते हैं? हम अपने देश को भविष्य में कैसा बनते देखना चाहते हैं? नेतागण सिर्फ तभी सुनते हैं जब उन्हें लगे कि फरियादी किसी वोट बैंक का हिस्सा है। शासन-प्रशासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं है। परिणाम यह है कि चुनाव के समय तक मतदाता इतना खीझा हुआ होता है कि वह तत्कालीन सरकार के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ वोट देता है। मतदान के समय एंटी-इन्कंबेंसी का यही कारण है। यही कारण है कि बहुत से नेता धार्मिक, सांप्रदायिक या क्षेत्रीय भावनाएं भडक़ा कर वोट हासिल करने की जुगत भिड़ाते हैं। नौकरशाही इतनी ताकतवर है कि मंत्रियों तक को उनकी चिरौरी करनी पड़ती है। छोटे-बड़े हर काम के लिए लोग सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रह जाते हैं। जान-पहचान न हो तो सरकारी कर्मचारियों को भी अपना काम करवाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। सरकार की सारी घोषणाओं और तिकड़मबाजी के बावजूद असलियत यह है कि यहां व्यवसाय आरंभ करना और चलाना दोनों ही बड़े जीवट का काम है।
हम गर्व से कहते हैं कि भारत एक युवा देश है जहां युवाओं की संख्या सबसे ज्य़ादा है। लेकिन क्या हम इसे समग्रता में देख पा रहे हैं? जब हम युवा वर्ग की बात करते हैं तो युवा वर्ग के साथ उसके सपने खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। युवा वर्ग के साथ आज सबसे बड़ी समस्या रोजग़ार है। हमारी किसी भी सरकार ने इस समस्या को हल करने या इसे समझने की आवश्यकता नहीं समझी। रोजग़ार सृजन के इतने उथले उपाय किए गए कि उनकी कलई खुलते देर नहीं लगी। मनरेगा जैसे उपाय रोजग़ार के साधन नहीं, खैरात हैं, जो इस समस्या का स्थायी समाधान कदापि नहीं हो सकते। पढ़े-लिखे युवाओं में इतनी हताशा है कि चपरासी के पद के लिए एमए, एमकॉम और एमएससी ही नहीं, इंजीनियर तक भी लाइन में लग जाते हैं।
आखिर इस हताशा का कारण क्या है? इस हताशा का एक कारण यह भी है कि पढ़े-लिखे युवा सिर्फ डिग्रीधारी हैं। उन्होंने परीक्षाएं पास करने का प्रमाणपत्र तो ले लिया लेकिन उनके पास वास्तविक ज्ञान शून्य है। वे रोजग़ार के काबिल नहीं हैं, एंप्लाएबल नहीं हैं। इतनी महंगी पढ़ाई के बावजूद इन बच्चों का रोजग़ार के काबिल न होना एक बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उन्हें कक्षाओं में व्यावहारिक ज्ञान मिलता ही नहीं। कालेजों में पढ़ाया जाने वाला कोर्स दस-दस साल पुराना है, उनके कंप्यूटर, उनकी मशीनें पांच से दस साल पुरानी हैं। परिणाम यह होता है कि जब वे अपनी पढ़ाई समाप्त करके निकलते हैं तो पहले ही दस साल पुराने हो चुके होते हैं। दुनिया आगे निकल चुक होती है और वे अपनी बेकार हो चुकी कागजी पढ़ाई से चिपके रहते हैं।
हमारे देश में तो बहुत छोटी कक्षाओं से ही यह सिलसिला आरंभ हो जाता है कि बच्चे के प्रोजेक्ट उनके मां-बाप, भाई-बहन पूरे करते हैं, साइंस की प्रेक्टिकल की कापियां कोई और बनाता है, पुराने शोधपत्र उठाकर कई बार तो सिर्फ नाम बदल कर जमा करा दिए जाते हैं। ऐसे बच्चे जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान है ही नहीं, जीवन में नया क्या कर पाएंगे? वे इंजीनियरिंग करके भी चपरासी और क्लर्क बनने के ही काबिल हैं। आने वाले दस सालों में यह समस्या और भी बढ़ेगी। बच्चे पैदा होंगे, युवा होंगे और बेरोजग़ार रह जाएंगे। इस समस्या की ओर हमारा ध्यान जाता ही नहीं। यह कोई राजनीति नहीं है, यह देश की समस्या है और हमें मिलकर सोचना होगा कि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में ऐसे क्या सुधार करें कि समाज प्रयोगधर्मी हो सके, हमारे बच्चों का भविष्य सुनहरा बन सके और देश विकसित हो सके।


No comments:
Post a Comment