तय की जाए जिम्मेदारी

देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ठेस पहुंचाने से रोकने वाले तमाम कानूनी प्रावधान होने के बावजूद पुलिस-प्रशासन आखिर कार्रवाई करने में क्यों चूकते हैं? कोर्ट स्पष्ट कर चुकी है कि इसकी जवाबदेही शीर्ष अधिकारियों की बनती है। देश की शीर्ष अदालत ने सख्त टिप्पणी करते हुए चेता दिया है कि देश के संविधान में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना की गई है। नफरत फैलाने वाले बयानों और भाषणों को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कई राज्यों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने वाले बयानों के मामले सामने आने के बाद कोर्ट ने संबंधित राज्यों की पुलिस को दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिये थे। इस मामले में जरूरी कार्रवाई न होने के बाद कोर्ट ने प्रशासन को चेताया है कि यदि प्रशासन ऐसे मामलों में सख्ती नहीं दिखाता है तो उसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई होगी। दरअसल, कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड पुलिस को इस बाबत कार्रवाई करने के लिये नोटिस भी भेजे थे। हाल ही में एक सभा में संप्रदाय विशेष के लोगों के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने के आरोप दिल्ली के भाजपा सांसद पर लगे थे। इसे अल्पसंख्यकों को निशाने पर लेने तथा भयभीत करने वाला बयान बताते हुए इसके बाबत अदालत में याचिका दायर की गई थी, जिसके आलोक में कोर्ट ने हालिया टिप्पणी की थी। इससे पहले कई राज्यों में आयोजित धर्म संसदों में भी जहरीले बोल सामने आये थे, जिसकी देश ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। इस पर अदालत ने इन राज्यों की पुलिस से दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को कहा था। अदालत का कहना था कि पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में किसी रिपोर्ट लिखवाने का इंतजार करे बिना स्वत: संज्ञान लेते हुए तुरंत कार्रवाई करे। कहने की बात नहीं कि ऐसे भड़काऊ बयानों से सामाजिक समरसता को आंच आती है। समाज में नफरत बढ़ने से टकराव की स्थिति पैदा होती है। विडंबना यह कि जिन राजनीतिक दलों को इन बयानों से लाभ होता नजर आता है उनकी तरफ से भी ऐसे तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती नजर नहीं आती, जिससे ऐसे नकारात्मक सोच वाले तत्वों के हौसले बुलंद होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि ऐसे बयान बहुसंख्यक समाज के धार्मिक व राजनीतिक नेताओं की तरफ से ही आते हैं। अल्पसंख्यकों के नेतृत्व का दावा करने वाले कुछ राजनेता भी जब-तब भड़काऊ बयान देते हैं जिसके जरिये वे वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने का प्रयास करते हैं। सवाल यह है कि ऐसे बयानवीरों के खिलाफ पुलिस तुरंत कार्रवाई क्यों नहीं करती। जिसकी वजह से छुटभैया नेताओं के हौसले बढ़ते हैं। इतना ही नहीं, पुलिस-प्रशासन की उदासीनता के चलते कुछ न्यूज चैनल भी गाहे-बगाहे उत्तेजक बहस अपने प्राइम टाइम में आयोजित करते दिखते हैं। जिससे संयम खोने वाले नेता ऐसे बयान दे जाते हैं कि पूरे देश में कड़वाहट घुल जाती है। पिछले दिनों एक सत्तारूढ़ दल की एक महिला प्रवक्ता के बयान के बाद भारत पूरी दुनिया में बचाव की मुद्रा में नजर आया और सफाई देने को मजबूर होना पड़ा था। निस्संदेह ऐसी घटनाओं से भारत की सहिष्णुता की छवि को आंच आती है। विडंबना यह है कि आज हम उस दौर में आ गए हैं कि समाज का नेतृत्व करने वाला वर्ग ऐसी घटनाओं के होने पर शांति के लिये रचनात्मक भूमिका का निर्वहन नहीं करता। पहले जिम्मेदार लोग शांति व्यवस्था बनाने के लिये आगे आते थे। इन घटनाओं में वार्ड व सेक्टर स्तर पर बनी शांति समितियां महत्वपूर्ण भूमिका पुलिस प्रशासन के सहयोग से निभाती थीं। निस्संदेह, अधिकारों के साथ ही संविधान ने हमें कुछ कर्तव्यों के निर्वहन का दायित्व भी सौंपा है। ये हमारी जिम्मेदारी भी है कि समाज में अमन का माहौल बने और असामाजिक तत्वों पर लगाम लगे। 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts