वक्त की चाल और कांग्रेस
कांग्रेस पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष की प्रक्रिया आरंभ होने के बीच हिमाचल प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनाव से पूर्व पार्टी के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने राज्य की संचालन समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। पार्टी द्वारा पद दिये जाने पर भी पूरे अधिकार व सम्मान न दिये जाने से आनंद शर्मा आहत थे। उन्होंने सोनिया गांधी को लिखे पत्र में कहा भी कि स्वाभिमान से समझौता नहीं किया जा सकता। इससे पहले जी-23 समूह के अन्य दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद ने भी जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। कहना मुश्किल है कि वे पार्टी में पर्याप्त अधिकार न दिये जाने से क्षुब्ध हैं या फिर बेहद लंबे अनुभव के आधार पर जनता का मूड भांप रहे हैं। बहरहाल, इतना तो तय है कि कांग्रेस पार्टी अपने अंतर्विरोधों से उबर नहीं पा रही है। पिछले कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद उम्मीद थी कि पार्टी वक्त की चाल में ढल कर संगठन में नई ऊर्जा का संचार करेगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। बहरहाल, रविवार से पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया आरंभ हो गई। कहा जा रहा है कि बीस सितंबर तक पार्टी को पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल जायेगा। अब देखना होगा कि यह अध्यक्ष गांधी परिवार से ही होगा या दौड़ में शामिल कुछ लोगों को भी मौका मिल सकेगा। निस्संदेह, ऐसे वक्त में जब बड़े बहुमत से सत्ता में आई केंद्र सरकार निरंकुश व्यवहार कर रही है, राहुल गांधी विपक्ष की आवाज बनकर उभरे हैं। देश की आंतरिक व बाह्य नीतियों पर जितने साहस व मुखरता से राहुल गांधी अपनी बात रखते हैं, उससे लगता है कि वे जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। वह भी तब जब सरकारी जांच एजेंसियों के जरिये राहुल गांधी व सोनिया गांधी से प्रत्यक्ष तौर पर घंटों पूछताछ हो चुकी है। यह प्रक्रिया अभी जारी है।निस्संदेह, राहुल गांधी निर्भीक व निडर होकर देश के संवेदनशील व जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात रखते हैं। वे मुद्दों पर विरोध व असहमति जताते हैं। लेकिन विपक्षी नेता की भूमिका में उनकी निरंतरता की कमी खलती है। अकसर सुर्खियों में रहता है कि वे अचानक किसी दूसरे देश में पारिवारिक कारणों से या फिर सैर-सपाटे पर निकले हैं। जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने वाले नेता से उम्मीद की जाती है कि राजनैतिक व्यवहार में निरंतरता रहे। इस भूमिका के निर्वहन के लिये पारिवारिक व निजी कार्यों को पार्श्व में रखकर पार्टी व विपक्ष का मनोबल बढ़ाना प्राथमिक काम होना चाहिए। इससे ही विपक्षी नेता की विश्वसनीयता को गंभीरता से लिया जाता है। ऐसे वक्त में जब कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल भाजपा की ए व बी टीम की भूमिका में हैं और कुछ दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोरे ले रही हैं तथा कुछ विपक्ष सरकारी जांच एजेंसियों के दबाव में है, राहुल गांधी से दमदार विपक्षी नेतृत्व की उम्मीद की जा रही हैं। पार्टी के पूर्णकालिक अध्यक्ष को लेकर उनकी ‘न’ व ‘हां’ से कार्यकर्ताओं में जीत का जज्बा पैदा नहीं हो पाया। राजनीतिक पंडित तो यहां तक कहते हैं कि राहुल गांधी की यह ऊहापोह की राजनीतिक शैली केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार को रास आती है। जिससे न केवल राजग अपने राजनीतिक अभियान को गति दे पा रहा है, बल्कि वहीं दूसरी ओर मजबूत विपक्ष को उभरने का मौका भी नहीं दे रहा है। बहरहाल, कांग्रेस अपने आंतरिक द्वंद्व से उबर नहीं पा रही है। लगातार लगने वाले झटकों व कई दिग्गजों के पार्टी छोड़ने के बाद भी पार्टी की रीति-नीतियों में बड़ा बदलाव नहीं आया। इसके बावजूद कि पार्टी के दिग्गजों का एक समूह लगातार संगठन में रहकर पार्टी में निरंतर सुधार व बदलाव की बात करता रहा है। ऐसे ही पार्टी के दिग्गज मुखर नेता कपिल सिब्बल पार्टी छोड़ चुके हैं। कुछ अन्य दिग्गज नेता भी पार्टी के फैसलों को लेकर असहमति जताते रहते हैं। निस्संदेह इससे पार्टी कार्यकर्ताओं के मनोबल पर प्रतिकूल असर पड़ता है।


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