सेहतमंद गांव से स्वस्थ भारत मुमकिन है

- नरेन्द्र सिंह बिष्ट
भारत ने जहां 21वीं सदी में प्रवेश किया है वहीं ऐसा लगता है कि पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामो ने स्वास्थ्य सुविधाओं के मामलें में इसके विपरित 12वी सदी में प्रवेश किया है। राज्य के दूरस्थ इलाकों का धरातलीय सच शर्मसार करता है। यहां के दूर दराज़ क्षेत्रों में ऐसे कई अस्पताल हैं जहां डॉक्टरों की कमी के चलते या तो फार्मासिस्ट या फिर भगवान के भरोसे मरीजों का इलाज चल रहा है।
 अल्मोड़ा जनपद के अस्पतालों में जितने डाक्टर की आवश्यकता है उनके आधे अपनी सेवाएं दे रहे हैं। यह केवल एक जनपद की बात नहीं है, राज्य के प्रत्येक जनपदों में यही स्थिति देखने को मिल जायेगी। सरकार के लिए स्वास्थ्य विभाग एक मुद्दा मात्र है, परन्तु राज्य बनने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी आम बात है। ज़्यादातर पहाड़ी क्षेत्रों के दुरस्थ ग्रामों में तो आज भी फार्मसिस्ट ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को चला रहे हैं।



कैग रिपोर्ट के खुलासे में भी सामने आया कि राज्य के लोगों का स्वास्थ्य भगवान भरोसे चल रहा है। रिपोर्ट में बताया गया कि जिला अस्पताल रेफरल सेंटर बन कर रह गये है जहां उपकरण से लेकर डॉक्टर, नर्सों, दवा, पैथोलॉजी जांच आदि की भारी कमी है। इन संसाधनों का उपयोग सही तरीके से भी नहीं किया जा रहा है, जबकि राज्य में लोगों के स्वास्थ्य में जबरदस्त सुधार की जरूरत है। नैनीताल जनपद के ओखलकांडा विकासखंड के कई ग्राम ऐसे है जो आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है एक्सरे मशीन है पर इसे ऑपरेट करने वाला कोई नहीं है। इमर्जेन्सी की हालत में 4 घंटे का पर्वतीय सफर करना मरीज और परिवार सदस्यों के लिए भी एक चुनौती से कम नहीं होता है। शहर में मंहगा इलाज गरीब वर्ग की कमर तोड़ देता है। वहीं दूसरी ओर सड़कविहीन गांव से मुख्य सड़क तक मरीज़ को लाने के लिए चारपाई या डोली की व्यवस्था 21वी सदी में विकास का दावा करने वाली सरकारों को आईना दिखाता है।
ओखलकांडा विकासखंड के ही ग्राम भद्रकोट की मधुली देवी बताती हैं कि वह विगत कई वर्षों से पैर में सूजन से परेशान हैं। ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा न होने के कारण तीन चार बार वह अपना इलाज हल्द्वानी के प्राइवेट डॉक्टर से करा रही थी, परन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर होने के कारण अब इलाज को करवा पाना संभव नहीं है। पैसे के आगे जीवन ने घुटने टेक दिये व आर्थिक कमजोरी व शारीरिक ह्रास के कारण जैसे तैसे जीवन के पलो को दुःख के साथ काटने के लिए वह विवश हो गयी हैं। उन्होंने कहा यदि ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा होती तो उनका इलाज मुमकिन हो पाता।
आधुनिक भारत में जागरूकता के अभाव में डॉक्टरी इलाज से कहीं अधिक झाड़ फूंक पर विश्वास करना, कहीं न कहीं हमारे पूरे सिस्टम पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है, जबकि इसके लिए एक तरफ जहां समाज की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह जागरूकता के माध्यम से लोगों की इस सोच में परिवर्तन लाए वहीं स्वास्थ्य विभाग की ज़िम्मेदारी होती है कि वह इलाज की प्रक्रिया को इस प्रकार सुचारू बनाये कि लोगों का उन पर भरोसा हो।
ऐसे में सरकार द्वारा ग्राम स्तर पर प्रति माह स्वास्थ शिविरों का आयोजन करना ग्रामीणों के पक्ष में जहां सकारात्मक प्रयास होगा और ग्रामीण समुदाय को बीमारियों से निदान मिल सकेगा वहीं लोग झाड़ फूंक जैसे अंधविश्वास से भी दूर होंगे। इलाज ग्राम स्तर पर किया जाना भी संभव नहीं है क्योकि अधिकांश गांवों तक रोड नहीं है या फिर ऐसी रोड है जिन पर इस प्रकार के उपकरणों को लेकर जाना संभव नहीं है। गांव में सुविधाएं नहीं होने के कारण ग्राम स्तर पर डॉक्टर रहना भी नहीं चाहते हैं। इस दशा में कुछ इस प्रकार के मानक बनाये जाने की आवश्यकता है कि डॉक्टरों को सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम 10 वर्ष अपनी सेवाएं देनी अनिवार्य करनी होगी, साथ ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी उन्नत संसाधन उपलब्ध करवाए जाने की आवश्यकता है।
वहीं ग्राम खन्स्यू स्थित प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र के युवा डाॅ विनय चौहान का कहना है कि ग्रामवासियों में जानकारी का अभाव भी एक बड़ी समस्या है। सरकार द्वारा कई योजनाएं शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनायी गयी हैं जिसमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन प्रमुख है, लेकिन जानकारी का अभाव इन योजनाओं के सफल होने में बाधा साबित हो रही है। सरकार को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में स्वास्थ्य संबंधित विषयों को जोड़कर प्रति परिवार जागरूकता को विकसित करने की ज़रूरत है।

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