- शिवचरण चौहान
पिछले कुछ सालों से किताबों के पाठकों का संकट सामने आ खड़ा हुआ है। किताबें बिकती नहीं है, इस कारण प्रकाशक किताब छापना नहीं चाहता और लेखक लिखता तो है किंतु उसके लिए पाठक नहीं मिलते। उसकी किताब कोई खरीदता नहीं है। कोरोना संकट तो सन 2019 आया किंतु जब से सोशल मीडिया आया लोगों में किताबें पढ़ने के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई। लोग अपने मोबाइल फोन कंप्यूटर लैपटॉप पर बिजी होते चले गए।  किताबें हाथ से छूटती चली गईं।



लोगों में किताबों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट ने पुस्तक मेले का आयोजन करना शुरू किया था। दिल्ली में पुस्तक मेला जनवरी के पहले सप्ताह में आयोजित होता आ रहा है। प्रदेशों की राजधानियों महानगरों कस्बों तक में भारतीय पुस्तक न्यास ने पुस्तक मेले लगाए हैं। पुस्तकों का प्रचार प्रसार किया गया है किंतु अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। इस बार नई दिल्ली में प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन 8 जनवरी से किया जा रहा था। इस वर्ष पुस्तक मेले का अतिथि देश फ्रांस को बनाया गया था और विषय रखा गया था आजादी का अमृत महोत्सव। किंतु अब यह पुस्तक मेला स्थगित कर दिया गया है।

2022 में प्रगति मैदान नई दिल्ली में लगने वाला नेशनल बुक ट्रस्ट का पुस्तक मेला 30वां पुस्तक मेला होता कोरोना संकट के चलते पिछले तीन वर्ष से पुस्तक मेला नहीं हो पाया था, किंतु इस बार 2022 में पुस्तक मेले की तैयारियां जोर शोर से की गई थी किंतु कोरोना के नए वेरिएंट के आने के कारण और अन्य कई कारणों के कारण पुस्तक मेले का आयोजन स्थगित कर दिया गया। नेशनल बुक ट्रस्ट ने कहा था कि कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए वह पुस्तक मेला आयोजित कर रहे हैं इस बार में पुस्तक मेला स्थगित हो गया। बहुत से प्रकाशकों ने दिल्ली के प्रगति मैदान में होने वाले पुस्तक मेले में अपने अपने स्टाल आवंटित भी करा लिए थे। अनेक पुस्तक प्रेमियों ने साहित्यकारों ने , रेलवे और हवाई जहाज से अपने अपने टिकट भी करा लिए थे किंतु सब धरे के धरे रह गए।
पुस्तक मेले में लोग तो आते ही हैं बच्चे भी आते हैं किंतु इतनी किताबें नहीं बिकती जितने के चाट समोसे बिक जाते हैं। यह सोचनीय विषय है।
पुस्तकें ज्ञान का भंडार हैं। पुस्तकें एक स्थान में रखी हुई शब्दकोश हैं जिन्हें जब चाय आप उपयोग कर सकते हैं। पुस्तकें आपकी ऐसी मित्र हैं जो कभी गलत राह नहीं दिखाती। एक समय पूरी दुनिया में पुस्तकों का डंका बजता था। किताब छापने की होड़ लगी रहती थी। पाठक लोग किताब मांगते थे। इसीलिए पूरे देश के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों में एचके व्हीलर्स की बुक स्टॉल खोले गए थे जो 24 घंटे खुले रहते थे। गीता प्रेस गोरखपुर और सर्वोदय बुक स्टाल भी सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर 24 घंटे खुले रहते थे। जहां से रेलवे में सफर करने वाले यात्री अपने मनपसंद की पत्रिका यें, किताबें और अखबार खरीद सकते थे। परिवहन निगम के प्रमुख बस अड्डों पर भी बुक स्टॉल खोले गए थे ताकि पाठक यात्रा के दौरान किताब खरीद कर पढ़ते हुए सफर करें। सभी छोटे बड़े और यहां तक कि गांव तक में पुस्तकालय और बुक स्टाल और बुक स्टोर बन गए थे। 
कोलकाता का पुस्तकालय बहुत विशाल था। उन लोगों के लिए विद्यार्थियों के लिए जो महंगी किताबें नहीं खरीद सकते थे पुस्तकालयों का वार्षिक बनकर मनोवांछित पुस्तकें पढ़ने के लिए घर ले जा सकते थे किंतु आज सब बदल गया है। यदि अमेरिका और चीन जैसे देशों में पुस्तकों के प्रति प्रेम फिर से उम्र आया है लोग मोबाइल फोन कंप्यूटर इंटरनेट लैपटॉप व्हाट्सएप से किनारा करने लगे हैं और ज्ञान के अथाह सागर किताबों का रुख करने लगे हैं किंतु भारत में स्थिति अभी नहीं बदली है। सब्जी बेचने वाले दूध बेचने का कारोबार करने वाले खेत में मजदूरी करने वाले मनरेगा मजदूर आज सभी की हाथों में 4G मोबाइल आ गया है और लोग 5जी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बिना किसी खास उद्देश्य के, लोग मोबाइल में इस तरह बिजी दिखाई देते हैं जैसे वह सब से बड़ा कोई काम कर रहे हैं जो प्रधानमंत्री भी नहीं कर पाएगा। गूगल का ज्ञान अधूरा अधकचरा और पर्याप्त नहीं है फिर भी लोग गूगल सर्च करके उसी को सत्य मान लेते हैं।
एक किताब छपने में काफी वक्त लगता है। एक लेखक बहुत शोध करने के बाद किताब मिलता है और फिर उस का संपादन किया जाता है कई स्तरों पर पुस्तक में दिए गए तथ्यों की जांच पड़ताल करने के बाद ही पुस्तक प्रकाशित की जाती है। इस तरह एक पुस्तक ज्ञान का भंडार होती है। किंतु आज लोग पुस्तक से दूर होते चले जा रहे हैं। 
साहित्यकार पुस्तक पढ़ना तो चाहता है छपवाना तो चाहता है कि तू सिर्फ अपनी वह दूसरों की किताब नहीं पढ़ना चाहता। लोक ट्रेन और बसों में सफर करते समय मोबाइल में खोए रहते हैं जबकि पहले किताबें पढ़ते थे और पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ते हुए सफर पूरा करते थे। भारत में हिंदी सहित सभी भाषाओं की किताबें अखबार और पत्र पत्रिकाएं बहुत सस्ती कीमत पर बिकती हैं। फिर भी लोग पत्र पत्रिकाएं और किताबें खरीदना नहीं चाहते पढना नहीं चाहते।
केंद्र सरकार ने प्रकाशन विभाग स्थापित किया हुआ है/ संचालित किया हुआ है। प्रकाशन विभाग सुंदर ढंग से किताब में छपता और भेजता है। पूरे भारत भर की राजधानियों में उसके विक्रय केंद्र हैं यहां पर पुस्तकें बिकती हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट भी जैसे अब राष्ट्रीय पुस्तक न्यास बना दिया गया है किताबें छपता है। यह दोनों संस्थान सरकारी हैं और लेखकों को पारिश्रमिक देखकर किताबें छपवाते हैं और जनता के बीच में बेंचते हैं। पर इधर कुछ सालों से सरकार ने प्रकाशन विभाग और नेशनल बुक ट्रस्ट का बजट नहीं बढ़ाया है। आकाशवाणी और दूरदर्शन की हालत में खस्ता है। इनके पास भी बजट सरकार द्वारा दिया जाता है किंतु प्रसार भारती बन जाने के कारण दूरदर्शन और आकाशवाणी के सामने अच्छे कार्यक्रम प्रस्तुत कर पाने के लिए बजट ही नहीं है।
पिछले कुछ सालों से ई बुक, ई न्यूज़ पेपर, ईमैग्जीन का प्रचलन बढ़ा है किंतु यह मुद्रित किताबों की जगह नहीं ले सकता। जिस तरह से आकाशवाणी दूरदर्शन और चैनलों के कार्यक्रम हवा में विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार गूगल की किताबें हवा में विलीन हो जाती हैं। जब तक इन्हें सेव करके ना रखा जाए। किताबें किसी देश के इतिहास संस्कृति भूगोल विज्ञान विज्ञान और प्रगति को समझने का सबसे बड़ा साधन होती हैं किंतु जब किताबें ही नहीं रहेंगी तो हमारा इतिहास संस्कृति ज्ञान विज्ञान कैसे सुरक्षित रहेगा।
हमें बढ़ती हुई गूगल संस्कृति को रोकना होगा नियंत्रित करना होगा। गूगल संस्कृति हमारे देश में तो सबसे बाद में आई है पहले अमेरिका और चीन में इसके परिणाम और दुष्परिणाम देखे जा चुके हैं। इसलिए सरकार स्वयंसेवी संस्थान स्कूल कॉलेज के प्रबंधकों अध्यापकों को एक अभियान चलाना पड़ेगा जिससे पुस्तक संस्कृति बचाई जा सके लोगों में पुस्तक पढ़ने की आदत विकसित की जा सके।
पिछले दिनों भारत में व्यापक पैमाने पर एक सर्वे कराया गया था जिससे पता चला है कि 96 प्रतिशत लोगों के पास मोबाइल फोन है। 75 प्रतिशत लोगों के घरों में टेलीविजन सेट हैं। 55 प्रतिशत लोगों के पास कंप्यूटर लैपटॉप अथवा टेबलेट है। सरकारों ने भी विद्यार्थियों के लिए जी खोलकर फोन लैपटॉप कंप्यूटर बांटे हैं। गांव गांव तक वाईफाई की सुविधा दी गई है किंतु यह सब बहुत महंगे साधन है इनके लिए इंटरनेट कनेक्शन बहुत जरूरी है जो अगर किसी दिन ध्वस्त हो गया तो कुछ भी नहीं देख पढ़ पाएंगे। इंटरनेट कनेक्शन के दोस्त होते हैं हम फिर आदिम युग में लौट जाएंगे। जबकि पुस्तकें सदैव हमारे पास बनी रहेंगी और हमें ज्ञान देती रहेंगी राह दिखाती रहेंगी।
पुस्तकों की संस्कृति बचा कर रखिए लुप्त मत होने दीजिए। पुस्तकें हमारी संस्कृति हैं इतिहास हैं भूगोल हैं ज्ञान हैं विज्ञान है। पुस्तक है तो जहान है जान है। अभी भी समय है पुस्तकों की ओर लौट आइए। अभी तो आप कुछ घंटे के लिए इंटरनेट कनेक्शन चले जाने पर बेचैन हो जाते हैं फिर अगर परमानेंट ही कनेक्शन चला गया तो क्या होगा जरा सोचिए !
(लेखक स्वतंत्र विचारक, साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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