- डॉ. ओपी चौधरी

प्रकृति हमारे जीवन के लिए सभी साधन उपलब्ध कराती है। प्राचीन जीवन दर्शन-आयुर्वेद के महर्षि चरक की संहिता में 'यतः प्रकृतिष्चारोग्यम' अर्थात प्रकृति को ही आरोग्य कहते हैं का उदघोष कर प्रकृति के पोषण भाव का चित्रण किया है। सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्ति पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु (पंच तत्व) के संयोग से हुई है। प्रकृति की मौलिकता में कोई छेड़छाड़ न हो तो हमारा जीवन सामान्य ढंग से चलता रहता है, पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। प्रकृति के अमूल्य रत्न हैं वन और वनस्पतियाँ। भारतीय संस्कृति में समस्त जीव-जंतुओं तथा वृक्षों को धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों, रीति-रिवाज से जोड़कर उन्हें संरक्षित करने की परम्परा विद्यमान थी।


चरक संहिता में तो यहां तक कहा गया है कि जब तक धरती वन संपदा, जीव-जंतुओं से परिपूर्ण है तब तक मानव का अस्तित्व बरकरार रहेगा। हमारे मनीषियों ने पृथ्वी की माता के रूप में प्रार्थना करते हुए,' माता भूमि: पुत्रोअहं पृथिव्या:' कहा है।वृक्षों के महत्त्व को गौतम बुद्ध ने रेखांकित करते हुए कहा है कि वृक्ष असीमित दयालुता और उदारता वाला विचित्र पौधा है वह अपनी वृद्धि के लिए कोई मांग नहीं करता है और यहाँ तक कि अपने को बर्बाद करने वाले लकड़हारे को भी छाया देता है। ऋग्वेद में कहा गया कि यदि तुम जीवन फल एवं आनंद का सैकड़ों और हजारों वर्ष तक उपयोग करना चाहते हो तो सुनियोजित ढंग से वृक्षारोपण करो।
भारतीय दर्शन, मनीषा और चिंतन हमेशा प्रकृति के प्रति जागरूक रहा है और इसे धार्मिक क्रिया कलापों व परंपराओं के साथ जोड़ा हुआ था,ताकि इनका संरक्षण हो सके और हमारा जीवन निर्बाध चलता रहे। कालांतर में विकास की अवधारणा ने और मानव की स्वार्थपरता एवं लालच ने प्रकृति का वेहिसाब दोहन किया,जिसका परिणाम है कि आज हम ऑक्सीजन के लिए क्लबों में जाने को मजबूर हैं।कोविड-19 की विकरालता से हमें ऑक्सीजन का महत्व समझ में आया और हमें वनों की याद आयी, स्वछ पर्यावरण की जरूरत शिद्दत से महसूस हुई। वृक्षों की अनियन्त्रित कटाई से अनेक समस्याएं हमारे सामने सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हुई हैं। फिर भी हम कहीं न कहीं लालच में पड़कर मानव के साथ ही अन्य सभी जीव-जंतुओं के जीवन को खतरे में झोंक रहे हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण है मध्य प्रदेश के छतरपुर में स्थित बकस्वाहा जंगल, जहाँ हीरे की खदान के लिए पूरे जंगल को उजाड़ा जाने वाला है। एक अनुमान के अनुसार वहां लगभग सवा दो लाख वृक्ष काटे जाएंगे, लाखों जीव-जंतुओं का आश्रय स्थल उजाड़ दिया जाएगा,वे बेघर हो जाएंगे अधिकतर का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जो बच जाएंगे मानव बस्तियों की ओर बढ़ जाएंगे औऱ उन्हें नुकसान पहुंचाएंगे। जैव विविधता का क्षरण होगा जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए ठीक नहीं है।
वास्तव में बकस्वाहा, छतरपुर या आसपास के जनपदों के लोगों के लिए जीवन रेखा है, पूरे प्रदेश के लिए प्राणवायु का अनुपम स्रोत है। प्रकृति की मनोहारी छटा से आच्छादित बकस्वाहा मात्र एक वन क्षेत्र नहीं है अपितु वहां के आसपड़ोस के लोगों के जीवन निर्वाह का एक बहुत बड़ा जरिया है, जीवन रेखा है। साथ ही जीव-जन्तुओं का आश्रय स्थल है। ऐसी स्थिति में मात्र शौक के लिये धारण किये जाने वाले हीरों के लिए जंगल को नष्ट करना, मानव के साथ ही मानवेतर के जीवन को समाप्त करने का कुचक्र जैसा ही है। इसके सामने हीरों  की क्या कीमत है। हम जीवन से समझौता कर हीरों को प्राप्त करके क्या करेंगे। "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता:" अर्थात हम राष्ट्र को जागृत करने वाले लोग हैं। पर्यावरण प्रहरी, संरक्षक हैं। सृजन हमारा ध्येय है, पर्यावरण संरक्षण हमारा उद्देश्य है। ऐसे में देश के सभी पर्यावरण संरक्षण कार्य कर्ताओं को एक मंच पर बकस्वाहा जंगल के साथ ही अन्य वनों, प्राकृतिक स्रोतों को बचाने हेतु आगे आकर संघर्ष करना होगा-
   हम जैसी कल्पना करेंगे, वैसा यह संसार रचेंगे।
   लिए हमारी कांत कल्पना, निमिष, बरस, युग, कल्प चलेंगे।
- एसोसिएट प्रोफेसर, श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।

No comments:

Post a Comment

Popular Posts