- शिवचरण चौहान

गांव अब गांव नहीं रह गए हैं । गांव में एक शहर घुस आया है। गांव धूल, धुआं और धूर्तता के पर्याय बन कर रह गए हैं। जब  से गांव-गांव में ग्राम पंचायत बनी हैं। ग्राम प्रधान, ब्लाक प्रमुख, पंचायत अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष के पद आए हैं गांव राजनीति के अखाड़े बन गए हैं। कुरुक्षेत्र बन गए हैं। गांव गांव अब दल बंदी हो गई है। छल कपट चुगल खोरी विश्वासघात चोरी डकैती और घूसखोरी बेईमानी आम बात हो गई है। गांव गांव नेता के नाम पर दलाल पैदा हो गए हैं। जो अपने ही भाई बंधु पड़ोसी और गांव वालों को लूट रहे हैं, छल रहे हैं।  



गांव में नाली खड़ंजा सीसी रोड प्रधानमंत्री आवास, ग्रामीण शौचालय आदि बनवाने के लिए भारी मात्रा में धनराशि ग्राम प्रधान के बैंक खाते में आती है। पंचायत सचिव और ग्राम प्रधान के संयुक्त खाते से संचालित धनराशि अब बंदरबांट कर ली जाती है। मनरेगा के तहत आया धन भी हड़प लिया जाता है। 20 हजार रुपये दो और 3 लाख रुपये का पीएम आवास लो। 2000 रुपये दो और 12000 का शौचालय लो। यह एक अघोषित नियमावली गांव गांव ग्राम प्रधानों ने बना रखी है। विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन अब निराश्रित लोगों को नहीं बल्कि उन्हें मिलती है जो लेखपाल और ग्राम सेवक ग्राम, प्रधान को 1000 रुपये सुविधा शुल्क दे देता है। जिन गांव वालों के पास चलने के लिए साइकिल नहीं थी ग्राम प्रधान बन जाने पर उनके घर पर बोलेरो कार आ गई। अपना ट्रैक्टर आ गया और पक्का घर बन गया। अगर महिला प्रधान है तो उसका पति, पुत्र या पिता ही असली ग्राम प्रधान होते हैं।
21वीं शताब्दी में सबसे ज्यादा बदलाव गांव में हुआ है। सन 2001 से गांव पहले वाले गांव नहीं रह गए हैं। बदलाव तो सन 1990 से ही शुरू हो गया था पर 2001 के बाद स्थितियां एकदम बदल गई है। हमारे गांव अब अपनी पहचान खो चुके हैं। देश की सांस्कृतिक एकता की, सौहार्द, आपसी प्रेम की जड़ें हमारे गांवों में  दिखाई देती थीं। एक दूसरे को मदद करने का भाव अक्सर दिखाई दे जाता था। गांव की प्राकृतिक छटा मिट्टी की महक,  भोलापन प्रकृति से लेकर आदमी तक को मोह लेता था।
गांवों की सहजता, सरलता, कृतज्ञता, निश्छलता, ईमानदारी और भोलापन आज गायब हो गया है। अब गांव में शहर घुस आया है-
राजनीति जबसे घुसी गांव हुए कुरुक्षेत्र।
लूट कपट दंगे कत्ल आग लगी हर क्षेत्र।।
 यह दोहा आज के गांव पर सटीक बैठता है। गांव तीव्र गति से रूपांतरित हो कर
एक नयारूप ले रहा है। सड़के बनी हैं। अस्पताल खुले हैं गांव-गांव बिजली आई है स्कूल खुले हैं बच्चे मिड मील का खाना खाते हैं।
नहर पानी देती हैं गांव-गांव रिंग बोर लग गए हैं। खेत में भरपूर फसल पैदा होती है। हर गांव में 100-200 ट्रैक्टर भी आ गए हैं। दो बैलों की जोड़ी और बैलगाड़ी गांव से अब गायब हो गई है। गाय अन्ना होकर किसान का खेत चर रही हैं भैंस दूध देती है और डेयरी में  दूध नापा जाता है। बहुत विकास हुआ है गांवों का। देर तक चौपालों में बैठके भी होती हैं। उस पार्टी और इस पार्टी को नीचा दिखाने की योजनाएं भी बनती हैं। थाना पुलिस कचहरी भी होता है। पर गांव का आम आदमी पीड़ित है उसका सुख छिन गया है। अपनापन छिन गया है।
 अब चने का साग सरसों का साग मक्की की रोटियां आलू बैंगन का भर्ता सामूहिक रूप से नहीं बनता। अब अपने अपने खेमे बंदी में गांव सिमट गए हैं। अब गन्ने से गुड़ बनने के लिए कड़ाव तो चढ़ते हैं पर गुड़ की सोंधी सोंधी महक गायब है। चने का साग बनता है पर रोटी की सुगंध गायब है। रसियाउर नहीं बनाई जाती। मट्ठा बिकता है। दूध बिकता है। गांव गांव तंबाकू पान की पुड़िया ,चाय और शराब के पाउच ,मुर्गी के अंडे आमलेट कटलेट समोसा और ठंडा पेय पदार्थ 24 घंटे मिल जाता है।
पर अब गांव की गरिमा खत्म हो गई है। अब हर काम के कोई ना कोई मायने होते हैं। अब गांव में अपनापन नहीं, छल कपट दंभ द्वेष और झूठा दिखावा देखने को मिलता है। गुणात्मक दृष्टि से गांव पतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं । गांव के जीवन में अब प्रेम नहीं शुष्कता और नीरसता व्याप है । गांव भीतर से खोखला हो उठा है । गांव की प्रतिष्ठा गायब हो चुकी है।
मिट्टी के घर, कच्ची पगडंडिया, बाग बगीचे, खेत, खलिहान  अब गांव से गायब हो गए हैं। अब गांव के  अच्छे सच्चे लोगों ने शहरों में अपने आवास बना लिए हैं। वे गांव के लफड़े में नहीं पड़ना चाहते। अच्छे लोगों के मन पर एक उच्चाटन का भाव  आ गया है। शहरों की ओर भागने वाले परिवारों का गांव के प्रति मोह- भंग होता जा रहा है, गांव की दलबंदी, वहां की तिकड़म और वहां के छिछोर पन ने भले लोगों का सांस लेना दुश्वार कर दिया है। चक्की के गीत, पनघट और अलाव की भीड चौपाल चबूतरे की चहल-पहल, त्यौहारों की मिठास, मेले ठेलों की रौनक  अब गायब हो चुकी है। आस्था यानी कथा भागवत में व्यापारी आ गए हैं। धार्मिक कार्यक्रम के लिए चंदा बटोरा जाता है जो कुछ लोगों की कमाई का साधन बनता है। अर्थ पिशाचा अट्टहास कर रहा है। बड़े, बूढ़ों  का लिहाज जाता रहा ।पंच परमेश्वर बिकाऊ हो गए हैं। इंसानियत लगातार घटती जा रही है। पाप पुण्य धर्म अधर्म लोक परलोक अब कोई नहीं मानता।
संतोष और शांति  अब गांव से गायब है । प्रेम , स्नेह का स्थान ईर्ष्या लेती जा रही है। सौहार्द्र के अभाव में आज के गांव संघर्ष स्थल बन गए हैं।राजनीति जब से गांव में घुसी है गांव गांव अनेक नेता पैदा हो गए हैं।  गांव का आपस का भाईचारा लगभग गायब है।  दद्दू,  दादा, चाचा, चाचू, चाची, चच्चू, दाई, दादी अम्मा, पासिन काकी, पांडे काका, धोबिन मौसी, नाउन चाची, गोढा बुआ, छैला चाचा, अब्दुल्ला ताऊ आदि संबोधन गायब हैं। धोबिया नाच, कहार नाटक, नौटंकी, लोकगीत, सोहर, कबीरपंथी भजन, बाल लोरिया, दादी, नानी की कहानियां सब पता नहीं कहां गायब हो गई हैं। अब हर हाथ में स्मार्टफोन, घर घर में टीवी बुद्धू बक्सा आ गया है लोग इसी में रात दिन बिजी रहते हैं तो बारह मासा-कजरी, बिरहा, सोहर  फाग ,ध्रुपद, मल्हार आदि  गाना भूल गए हैं।
'बस'  टेंपो के अड्डे पर चाय-पान , सैलून की दुकानें  खुल गई हैं कॉस्मेटिक की दुकान खुल गई हैं। साइकिल की जगह अब घर-घर बाइक आ गई है। खुशामद-जी हजूरी, तिकड़म, मतलब-साधना जरूरत पर गधे को बाप कहना और काम निकल जाने पर'शरीफ' को भी 'साला' बताना आम बात हो गई है। एक धोती और मारकीन के अंगोछे पर साल पार कर देने वाले किसानों के बच्चे जींस सूट पहनते हैं। स्टाइल से बाल रखते हैं। बालों को मनमाफिक कलर कराते हैं। हर नौजवान किसी ना किसी हीरो की स्टाइल बनाए घूमता मिल जाता है। गांव के पास से बड़ी-बड़ी सड़कें हाईवे रेलवे लाइन निकल रही हैं। कौड़ियों के भाव बिकने वाली किसान की जमीन अब करोड़ों रुपए में बिक रही है। सरकार ने गांव की जमीन का सर्कल रेट घोषित कर दिया है जो हर साल बढ़ता रहता है। गांव-गांव फैक्ट्रियां लग रही हैं। अब पहले जैसे वाले गांव नहीं रहे अब गांव शहर से भी गए गुजरी सभ्यता वाले निर्लज्ज हो गए हैं। गांव से अपनापन गायब है।
(लेखक स्वतंत्र विचारक और स्तंभकार हैं।)

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