युगों-युगों से उत्तर प्रदेश का गंगा जमुना दोआब क्षेत्र कला तथा संस्कृति का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पुरातात्विक विपुल सामग्री से भरपूर है यह क्षेत्र। यहाँ की अनेक अनजानी जगहों पर आज भी अनेक सिसकते हुए पुरावशेष अपने जिज्ञासुओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस क्षेत्र की उत्तर पश्चिमी सीमा में स्थित सहारनपुर जनपद ऐसा ही क्षेत्र है जहाँ आज भी एक जमाने की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अनेक भित्तिचित्र विद्यमान हैं। इन चित्रों का निर्माण 19वीं- 20वीं सदी के तीसरे दशक तक होता रहा था। लगभग एक सौ वर्षों के जमाने की गाथा इन चित्रों में संजोयी हुई है। ये चित्र न केवल भवनों के साज-सजावट की ही सामग्री थे वरन् यहाँ के समाज की जीवन पद्धति के जीवंत प्रतिबिम्ब भी रहे हैं। गुमनाम सी पड़ी इस जनपद से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री इसकी प्राचीनता को सिंधु घाटी सभ्यता और सरस्वती सभ्यता के युग तक ले जाती है। यहाँ की अति उपजाऊ धरती हरा सोना उगलती रहती है। अतएव यहाँ की संपन्नता और समृद्धि ने समय-समय पर धन के लोभियों को खूब ललचाया जिसके फलस्वरूप 11वीं सदी में महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजी कम्पनी के शासन काल तक अनेक आक्रांताओं ने इसे कई बार जी भर कर लूटा और विनाश भी किया। बहुत लम्बे समय तक अहिन्दू और विदेशी शासकों के अधिपत्य में रहने और विध्वंस के थपेड़ों के कारण यहाँ की सांस्कृतिक संपदा विलुप्त होती चली गयी। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ होते ही, अनुकूल वातावरण पाकर यहाँ की निष्प्राण संस्कृति पुनः सशक्त हो उठी। भवन-निर्माण, लकड़ी पर नक्काशी, संगतराशी, गचकारी, मनोतगिरि, मुसव्वरी, ग्रंथ लेखन, मिट्टी के खिलौने व बर्तन बनाना, कठपुतली बनाना और कई दूसरे कलात्मक शिल्पों का व्यापक विस्तार इस जनपद में तेजी से हुआ। यह रचनात्मक आंदोलन लगभग सौ वर्षें तक चलता रहा। एक दो स्थानों पर नहीं वरन पूरे जनपद में विद्यमान हैं ये भित्तिचित्र। इस जनपद में गंगोह, नकुड़, देवबन्द, कनखल, भगवानपुर, कोटा, झबरहेड़ा, लंढौरा, मंगलौर, चिलकाना, सुल्तानपुर के ग्रामीण क्षेत्र तथा सहारनपुर शहर के कई भवनों पर ये चित्र आज भी देखे जा सकते हैं। इन भवनों के छज्जे, खिड़कियाँ, कंगूरे, महराब, साये, गोखे, सिरदल, सपील, छत, कोने, आले, छतरी, गुमटी और दीवारें आदि छोटे-बड़े चित्रों व फूल-पत्तियों की आकर्षक सजावट से अटीं पड़ी हैं। इन चित्रों में विविध प्रकार के कई विषयों को अभिव्यक्त किया गया है किन्तु धार्मिक विषयों की अधिकता है इनमें। श्रीकृष्ण, विष्णु, राम, शिव और देवी दुर्गा आदि से संबंधित प्रसंगों की बहुत सरल व रोचक अभिव्यक्ति की गयी है। इनके अतिरिक्त समकालीन सामंती व संपन्न व्यक्तियों व साधारण लोक समाज के दैनिक जीवन के क्षण, प्रेम प्रसंग, बिहारी सतसई से प्रेरित श्रंगारिक भावपूर्ण विषय, कुछ देशी-विदेशी व्यक्तियों के शबीह (पोट्रेटस), ऐतिहासिक प्रसंग, लोक गाथाओं के कुछ रोचक अंश, प्रतीकात्मक आकृतियाँ, पशु पक्षियों के चित्रों की भी संख्या कुछ कम नहीं है। इस सबसे हटकर फूल पत्तियाँ व अन्य चित्रों के बॉर्डर व फ्रेम रूप-अलंकारों द्वारा सजाये हुए एक से बढ़कर एक सुन्दर पैनल, आलेखन तथा बारीक सजावट भी अपने आप में अनूठी और अनोखी है। आज के जमाने में चारो ओर बदलते हुए परिवेश में यह समृद्ध परम्परा समाप्त हो चुकी है और ये चित्र एक-एक करके गिरते छिपते जा रहे हैं। उपेक्षा और प्रकृति के क्रूर थपेडों की चोट से यह सांस्कृतिक कला कोश ओझल होता जा रहा है।
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