मुसलसल ख्वाबों में आके,
अब सताना छोड़ दो।
झूठे अल्फाज़ों से मुहब्बत,
अब जताना छोड़ दो।
न तलब, न दरकार है,
न अब दिले एतबार है।
गुजारिशों के जुगनुओं ने,
तज दी अब झंकार है।
जर्फ हो तो कर मुलाकात,
अब बहाना छोड़ दो।

झूठे अल्फाज़ों से मुहब्बत,
अब जताना छोड़ दो।
मेघ सावन के बरसे थे कभी,
गमी कैफियत से गुजरे थे कभी।
जिन्दान मे रहने वाले पंछी,
खुले अर्श के भंवरे थे कभी।।
राब्ता रुहानियत का था,
अब आजमाना छोड़ दो।
झूठे अल्फाज़ों से मुहब्बत,
अब जताना छोड़ दो।
- चारु मित्तल, मथुरा (उप्र)

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