- डा. ओपी चौधरी समन्वयक, अवध परिषद, उत्तर प्रदेश एसोसिएट प्रोफेसर, श्री अग्रसेन कन्या पीजी कॉलेज वाराणसी।
अब मेरे गांव की मिट्टी में, वह सोंधी खुशबू नहीं आती। जाने कहां खो गई, मॉर्डन बनने की चाहत में, सीमेंट की कहीं दूर महक में।
मेरा गांव अब बदल रहा है। थोड़ा-थोड़ा सा शहर हो रहा है। काका, मामा, फूफा -फूफी, अंकल-आंटी हो रहे हैं। गुड़ के ढेलियों की जगह कुरकुरे-मैग्गी ले रहे हैं बच्चे। कंचे, गिल्ली- डंडा छोड़कर कार्टून देख रहे हैं। मेरे छोटे से गांव वालों का बड़ा सा दिल सिकुड़ रहा है। मेरा गांव अब बदल रहा है। मेरे गांव में अब कुँए के मुहाने पर रस्सी खींचती अब कोई काकी नजर नहीं आती। आँगन में अब गोबर की खुशबू नजर नहीं आती, जो दरवाजे रात में भी खुले रहते थे, आज दिन में हीं सांकल चढ़ा बैठे हैं। मेरा गांव अब सचमुच बदल रहा है। थोड़ा-थोड़ा सा शहर हो रहा है। समाज में परिवर्तन होता आया है और होता ही रहेगा। शहर में बदलाव आया भौतिक भी और सामाजिक भी। यह परिवर्तन गांवों में भी बहुत तेजी के साथ हुआ। वैश्वीकरण के युग में सब कुछ बाजार आधारित हो गया। विकास ने न केवल हमारे भौतिक परिवेश को ही प्रभावित किया बल्कि सामाजिक ताने बाने को, मानसिक फलक को भी अछूता नहीं रहने दिया। कहावत है कि अजब तेरी महिमा, गजब तेरी लीला। वह भी क्या जमाना था जब दरवाजे पर बैल, भैंस, गाय, बकरी, घोड़ा, मुर्गी, कुत्ता आदि अपनी उपस्थिति से कोलाहल पूर्ण परिवेश का सृजन करते थे और जीवंतता का एहसास कराते थे। सुबह सूर्य की स्वर्ण रश्मियां ओस की बूंद को सुनहली बना देती थी, चिड़ियों का चहचहाना, भौरों का गुंजन वातावरण को संगीतमय बना देते थे। कुएं पर चरखी की आवाज क्या सिहरन पैदा कर देती थी नहाने से पूर्व ही, जाड़े में रोएं खड़े हो जाते थे। दरवाजे पर इन जानवरों की अधिकता उस व्यक्ति की संपन्नता और शौक के द्योतक थे, उस गाँव में उसे बड़ मनई कहा जाता था। दरवाजे पर नीम का दरख्त और दाएँ या बाएँ पक्का कुंआ, उस पर चरखी बरहा और कूंड। एक बड़ी बोरसी में आग हमेशा रहती थी, माचिस का जमाना था नहीं, लोग बाग शाम को आग ले भी जाया करते थे। उस बोरसी के पास बीड़ी ,सुर्ती और कहीं-कहीं हुक्का भी रखा रहता था, एक सरौता, सोपाडी, पक्की सुरती, कत्था, चूना भी कुछ शौकीन लोग रखते थे। अब आज यह सब कुछ गायब हो चुका है। दूध अब डेरी से आता है, बच्चों के पीने के लिए और चाय बनाने के लिए। पहले दूध, दूधनहर में गरमाया जाता था। दही जमाने पर लाल सी मोटी साढ़ी (मिट्टी के दूधनहर में उपले के अहरे पर छेद वाली हौदी से ढककर), गजब का स्वाद, फिर मट्ठा बने, मक्खन निकले, सभी लोग चाव से खाते थे। अब गाँव में भी गैस आ गई, गोहरी का जमाना लद गया। हर गाँव में एक छोटी सी परचून और चाय की दुकान हो गई है। सुबह-शाम चाय पीने वहाँ ही लोगबाग चले जाते हैं। लगभग प्रत्येक 5 किलोमीटर के अंदर देसी दारू का ठेका खुल गया है वहां चखना की दुकान भी मिल जाती हैं, अंडे की दुकान तो रहती ही है। उधर से ही एक पाउच/शीशी चढाकर साइकिल/मोटर साइकिल से कभी -कभी पैदल भी झूमते-झामते, बेवजह बोलते हुए, गाली-गलौज करते हुए गाँव (घर) की ओर चल देते हैं। कभी कभी कुछ ज्यादा हो जाती है या देशी और अंग्रेजी का मेल हो जाता है,या मिलावटी मिल जाती है जैसा कि अभी अंबेडकरनगर, आजमगढ़, अलीगढ़ में हुआ। सैकड़ों लोग स्वर्ग सिधार गए, बीबी-बच्चे अनाथ हो गए, सुहाग मिट गए, मां की कोख सूनी हो गई, पिता के अरमान दारू की भेंट चढ़ गए। ऐसे हादसे लगभग हर वर्ष हो जाया करते हैं, लेकिन सरकार क्या करे, इससे उसे बहुत टैक्स मिलता है जो, लोग मरे तो वह क्या करें, 2 से 4 लोगों का निलंबन करके सरकारी फाइल का पेट भर जाता है और कार्यों की इतिश्री हो जाती है। पहले गाँव में किसी भी कार्य- प्रयोजन में घर और गाँव की गृहलक्ष्मियां और मनसेधू मिलकर पूरा खाना बनाने से लेकर भोजन परोसने तक का काम कर लेते थे। दोना पत्तल, पुरवा एवं पानी परोसने का काम छोटे-छोटे बच्चे ही कर डालते थे, हम लोगों का प्रशिक्षण भी रामजियावान भैया, बृजेन्द्र चाचा (बलुआ) के साथ ऐसे ही हुआ था। खाना खाने के बाद पत्तल-पुरवा उठाकर उसे उचित स्थान पर रख आया जाता था। किसी भी शादी विवाह, बरही, तेरही,भोज भात में दूध-दही, बरतन आदि खरीदना नहीं पड़ता था, सब कुछ पास –पड़ोस से मिल जाया करता था। आधुनिकता में बहुत सी चीजें गायब होती जा रही हैं। पहले आजा - आजी, बाबा- बूढ़ी का का घर में बहुत ही कद्र व फिक्र होती थी, अब---। समय के साथ बदलाव जरूरी है, लेकिन हमें अपनी संस्कृति व संस्कार को सहेजने की भी जरूरत है। किसी ने क्या खूब कहा है कि हम चांद पर तो पहुंच गए लेकिन धरती पर रहना नहीं सीख पाए। कोविड ने जरूर जिंदगी का कुछ फलसफा हमें पढ़ाया है, दुःख और पीड़ा की गहन अनुभूति के साथ संवेदनशीलता, सहकारिता, मेल- जोल बढ़ाने और प्रकृति की ओर रुख करने की नई सीख मिली है।
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