मेरठ। कोरोना संक्रमित अधिकांश मरीज फंगस के शिकार हो रहे हैं। लेकिन ये फंगस कभी इतना जानलेवा साबित नहीं हुआ जितना कि इस समय हो रहा है। चिकित्सकों के अनुसार यह मानव के नाक और आंख हर जगह मौजूद हो सकता है लेकिन इतना सक्रिय नहीं रहता। गोबर, खाद, धूल और सड़े-गले पदार्थों जैसे सब्जियां आदि हर जगह फंगस पाया जाता है और ज्यादातर भारतीय मानव इन सब चीजों के करीब ही रहते हैं। मगर कोरोना की परिस्थितियों ने आक्सीजन सप्लाई से लेकर इम्युनिटी घटाने तक ऐसा कहर बरपाया है कि इस फंगस को तेजी से विकास करने का वातावरण मिल गया। मेरठ जिले में ब्लैक फंगस से पीडित मरीजों की संख्या बढकर 130 तक पहुंच चुकी है। जबकि ब्लैक फंगस के मरने वालों की संख्या 14 हो गई है। वहीं मेडिकल कालेज में ब्लैक फंगस के 19 नए मरीज देर रात तक भर्ती हुए हैं। 
मेरठ मेडिकल कालेज के कोरोना वार्ड प्रभारी dr deeraj rajके मुताबिक फंगस इंफेक्शन होना इतना आसान नहीं है। उन्होंने बताया कि फाइव मिस्टेक फंगस की वजह बन रहे हैं। जिनके कारण लोग इसके शिकार बन रहे हैं। उन्होंने बताया कि जानलेवा फंगस 25-30 डिग्री सेल्सियस में सबसे अधिक सक्रिय रहते हैं। इसी दौरान इनका विस्तार होता है। एयर कंडीशन कमरे में भर्ती कोविड के मरीजों को यह तापमान मिल रहा है। दूसरी बात मेडिकल उपकरणों को बार-बार विसंक्रमित न करने से भी फंगस का खतरा रहता है। सिलिंडर की ट्यूबिंग को साफ नहीं किया जाता, लिहाजा बॉटल के सतह पर मौजूद फंगस सीधे श्वसन तंत्र में पहुंच सकता है। चौथी बात व्यक्ति डायबिटीज के मरीज कोविड रिकवरी में स्टेरायड का अनियंत्रित इस्तेमाल कर रहे हैं। वहीं अंत में शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता इतनी कमजोर हो जाती है कि फंगस शरीर को कब्जे में लेना शुरू कर देता है।

फंगस का कोई रंग नहीं 
डा.वेद प्रकाश का कहना है कि ब्लैक, व्हाइट या यलो फंगस कह-कह कर लोगों को डराया जा रहा है। जबकि फंगस का कोई रंग नहीं होता। यह रंग तो शरीर में संक्रमण के बाद तय होता है। जब नाक से काला द्रव निकलता है तो ब्लैक फंगस, सफेद होता है तो व्हाइट और पीला आता है यलो फंगस कहा जा रहा है।

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