इलमा अज़ीम
पहले मान्यता रही है कि समाज का मिडल ऐज ग्रुप दु:खी व तनाव में और युवा व बुजुर्ग प्रसन्न रहते हैं। लेकिन अब जो अध्ययन सामने आ रहे हैं उससे पता चलता है कि दु:ख की शुरुआत अब युवा अवस्था में हो रही है। दरअसल, लगातार सोशल मीडिया से जुड़े रहने और यथार्थ से दूर रहने के कारण युवा जीवन की वास्तविक स्थितियों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं।
आभासी मीडिया उन्हें बड़े-बड़े सपने तो दिखाता है, लेकिन जीवन की कठोर सच्चाई से अवगत नहीं कराता है। यही वजह है कि जहां पहले मिड ऐज ग्रुप यानी 40 से 50 आयु वर्ग दुखी माना जाता था, उसके स्थान पर दु:ख की शुरुआत अब युवा उम्र से ही होने लगी है। हालत यह है कि बुजुर्गों की तुलना में युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य ज्यादा खराब है। आंकड़े बताते हैं कि हर नई पीढ़ी अब पहली के मुकाबले ज्यादा तनाव में है।
दरअसल, तमाम अध्ययन बता रहे हैं कि सोशल मीडिया में लगातार सक्रियता युवाओं को वास्तविक सामाजिक जीवन से दूर कर रही है। वे कृत्रिम जीवन में जी रहे हैं। जब हम समाज व मित्रों के बीच सक्रिय रहते हैं तो बातचीत से तनाव मुक्त रह सकते हैं। देर रात तक सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने से युवाओं का नींद का चक्र बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। आभासी मित्रता के बजाय आमने-सामने की बातचीत सेहत के लिये ज्यादा लाभकारी होती है।
यह जीवन की हकीकत है कि हमारे जीवन में योगदान देने वालों के प्रति यदि हम कृतज्ञता का भाव रखते हैं तो हमारा जीवन- व्यवहार सहज हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हम जिन चीजों के प्रति कृतज्ञ हैं, उनके बारे में लिखने से हमारा नजरिया बदलता है। हमारा मानसिक स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी दिनचर्या कितनी अनुशासित व संतुलित है।
रात को जल्दी सो जाने और सूर्योदय के साथ उठने से हम दिनभर प्रफुल्लित रह सकते हैं। विडंबना यह भी कि सोशल मीडिया पर आधुनिक जीवन की जो चमक-दमक दिखायी जाती है, युवा उसको पाने की आकांक्षा करने लगते हैं। लेकिन जीवन का यथार्थ कठोर है। भौतिकवादी नजरिये के चलते आज के युवा जिस जीवनशैली की आकांक्षा रखते हैं, वह पूरी न होने पर भी वे डिप्रेशन के शिकार बन जाते हैं। युवाओं को जीवन के कठोर यथार्थ से जूझने का संबल देना वक्त की जरूरत है।





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