पारिवारिक ढांचे को तोड़ता वैश्विक बाजार
- प्रो. नंदलाल
भारतीय परिवार व्यवस्था पर वैश्विक दृष्टि गड़ गई है। परिवार उसे खटकने लगा है विशेषकर भारत के बड़े बाजार को देखते हुए वे बेचैन हैं। उन्होंने हर तरह से मन बना लिया है कि इस व्यवस्था को कैसे बदला जाय ताकि उनके उत्पाद अधिक से अधिक भारतीय बाजार में उतर सकें। इसमें वैश्विक शक्तियां लगी हुई हैं जैसे मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों ने भारतीय संपदा और संस्कृति को तहस नहस करने का भरपूर प्रयास किया तथा एक नई शैक्षिक व्यवस्था देकर यहां से चले गए, उसकी टीस आज भी भारतीय लोगों के मस्तिष्क से जाती नहीं है। उन्होंने पूरा प्रयास किया । भारत वर्ष में मजहबी धर्मांधता को फैलाया और जातीय व्यवस्था की नींव भी डाल दी ।आज के समय में भूमंडलीकरण को आधार बनाकर बाजार व्यवस्था के माध्यम से भारतीय परिवारों पर प्रहार किया जा रहा है।
          बाजार फिल्मों में पैसा लगा रहा है। पैसा कमाने के नाम पर हमारे देश में ऐसे धारावाहिक निर्माता पैदा हो रहे हैं जो ऐसे ऐसे धारावाहिक समाज और परिवारों को परोस रहे हैं जो वास्तविकता से कोसों दूर है। समाज में जो घटनाएं लगभग दो चार प्रतिशत घटित होती हैं ऐसी घटनाओं पर नब्बे प्रतिशत धारावाहिक और फिल्में बन रही हैं। सास भी कभी बहू थी, अनुपमा जैसे न जाने कितने धारावाहिक बनाए और परोसे जा रहे हैं जो सिर्फ और सिर्फ अनैतिक और भारतीय संदर्भों से बहुत दूर हैं। अनैतिक संबंध, अंतर्जातीय विवाह, तलाक और सास बहू के रिश्तों, आदर्श संस्कारों के ठीक उलट दृश्य दिखाए जाते हैं। गलत तरीके से लड़के लड़कियों के संबंध को धड़ल्ले से दिखाया जाता है और उसका समर्थन होता है।

कभी भी आदर्शात्मक धारावाहिक दिखाने का प्रयास भी नहीं होता है।समाज और पारिवारिक बच्चे उन्हीं चीजों को फॉलो करते हैं।उसका परिणाम यह होता है कि बलात्कार की घटनाएं,लव जिहाद,भ्रष्टाचार,घूसखोरी,किशोर और किशोरियों का बिना जाति,धर्म,गोत्र देखे एक दूसरे के प्रति संबंध बढ़ाना, तलाक जैसी घटनाएं आम होती चली जा रही हैं।ये घटनाएं तो घट ही रही हैं साथ में परिवार भी विघटित होते जा रहे हैं।
इस विघटन में बाजार की प्रेरणा है। परिवार टूटेंगे तो एक टी वी के जगह चार टीवी की जरूरत होगी,एक वाशिंग मशीन की जगह चार वाशिंग मशीन की डिमांड होगी।एक मोबाइल की जगह दस मोबाइल की डिमांड होगी। एक गैस चूल्हे की जगह चार चूल्हे और आठ सिलिंडर की जरूरत होगी। एक मिक्सी की जगह चार मिक्सी की आवश्यकता पड़ेगी इस तरह जो एक मशीन से काम चल सकता था, एक टीवी से काम हो सकता था अब वहां चार चार की डिमांड होगी और जब डिमांड बढ़ेगी तो मार्केट फूले फलेगा।

मार्केट को सिर्फ लाभ ही लाभ दिखता है। परिवार जितना टूटेगा सामानों की उतनी ही आवश्यकता होगी और डिमांड बढ़ती चली जाएगी।इसलिए मार्केट फिल्मों,विज्ञापनों,और धारावाहिकों का सहारा लेता है और ऐसे थीम पर पैसा खर्च भी करता है जो परिवार को जोड़ने की जगह तोड़ने का कार्य करते हों।ऐसे जयचंद अपने देश में हैं जो पैसे के लालच में कुछ भी करने को तैयार हैं।आप सभी जानते हैं कि आज मार्केट मल्टीनेशनल बन चुका है।ऑनलाइन मार्केटिंग में बहुतायत से विज्ञापन विदेशी होते हैं लोग ऑनलाइन विज्ञापनों को देखकर ऑर्डर कर देते हैं और जब प्रोडक्ट मिलता है तो पचास प्रतिशत ग्राहक असंतुष्ट होते हैं,वापसी का कोई विकल्प नहीं रह जाता और लोग ठगा महसूस करते हैं।

      भारतीय संस्कार इस कदर गिरते जा रहे हैं कि आज मैने एक विज्ञापन देखकर ही इस आर्टिकल को लिखने को सोचा।एक व्यक्ति वृद्ध दंपत्ति के पास आता है और बहुत भरे मन से कहता है कि आपके परिवार में कौन कौन लोग हैं।दंपत्ति बताते हैं कि मेरा बहुत बड़ा परिवार है।मेरे दो लड़के मल्टीनेशनल में काम करते हैं और दो लड़कियों की शादी हम लोग कर चुके हैं।तब वह व्यक्ति कहता है कि अंकल जी आपको बताने में मेरा गला भर जा रहा है।हम लोगों ने एक कंपनी बनाई है जो ऐसे लोगों का दाह संस्कार कराती है जिनके बच्चे अंत्येष्टि में नहीं पहुंच पाते।सभी व्यवस्था हम लोग देते है।अभी तक हम लोगों ने पांच हजार अंत्येष्टि कराकर तीन सौ करोड़ की पूंजी इकट्ठी कर चुके हैं। लक्ष्य है दो हजार करोड़ करने का।एक संस्कार का चालीस हजार रुपए हम लोग लेते हैं और लोग इकठ्ठा करना, घाट तक ले जाना अंत्येष्टि करना,और फूल को गंगा जी में विसर्जित करना।दंपत्ति चुपके से कहते हैं मेरा रजिस्ट्रेशन भी कर लो।आप सोच सकते हैं कि विज्ञापन की दुनिया कहां पहुंच चुकी है और हम कहां तक गिरा दिए गए हैं।



       धरती और आकाश को नापता भूमंडलीकरण रूपी रथ हमारे मूल स्वरूप को प्रभावित कर रहा है।यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो हमारी सभ्यता,संस्कृति,परंपरा,संबंध,साहित्य,भाषा और यहां तक कि हमारी ज्ञान परंपरा भी छिन्न भिन्न हो जाएगी और हम अभिशप्त होंगे उसे ढोने के लिए।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट)


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