नई पीढ़ी के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा अपरिहार्य


- प्रो नंदलाल
वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी एवं सूचना क्रांति के युग में नई पीढ़ी धीरे धीरे आगे बढ़ रही है।बहुत कुछ नवाचार हो रहे हैं और वैज्ञानिक ,मानव जैसे और उससे भी आगे की क्षमता वाला कृत्रिम बुद्धि के निर्माण में संलग्न हैं। अर्थात यदि यह कहें कि अब हम मानव युग नहीं मशीनी युग में जीना शुरू कर दिए हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।मशीनी युग अर्थात भौतिकवाद का विस्तार और भारतीय ज्ञान परंपरा दोनों अन्तर्विरोधी विचार पर टिके हैं।

भौतिकवाद सर्वाइवल ऑफ द फिट्टेस्ट के सिद्धांत से संचालित होता है तो आध्यात्मिक मार्ग बसुधैव कुटुंबकम् पर बल देता है।दोनों ही विचार भारतीय जीवन में परिलक्षित होने लगे हैं।भौतिकवाद का विस्तार तेजी से हो रहा है और अध्यात्मवाद की गति धीमी पड़ती जा रही है।कोशिशें हो रही हैं पर आज का युवा कुछ दूसरे अंदाज में जिंदगी को जीना चाह रहा है ।वह किसी बंधन में रहना नहीं चाहता।वह हर चीज को तर्क के आधार पर अपनाना चाहता है।पर तर्क और आध्यात्म में तालमेल नहीं होता।


       अब हमें विचार करना होगा कि नई पीढ़ी को किस सांचे में ढालना है।उस ढांचे में जिसमें स्वार्थ के साथ साथ परमार्थ भी हो,मानवता हो,इंसानियत हो, समानता हो,और संस्कार हो या उस सांचे में जिसमें पशुता हो,असमानता हो,शोषण हो,अन्याय हो,।जहां सिर्फ अपना लाभ दिखाई दे वह चाहे जिस कीमत पर प्राप्त किया गया हो।जब देशों की बाउंड्री टूट गई हो,देखने सुनने का विकल्प मौजूद हो तो व्यक्ति उसी का चुनाव करता है जो सहजता से प्राप्त हो जाय।आध्यात्मिक रास्ता थोड़ा कठिन है जहां दिखता कुछ नहीं है सिर्फ विश्वास फलीभूत होता है। मां बाप की सेवा,वृद्धों की सेवा,असहायों की सेवा और संगठन का भाव भारतीय मानव को अन्य मानवों से अलग करता है।भारत वर्ष में परिवार का वृहद अर्थ होता है जहां कई पीढ़ियां एक साथ जीवन बिताती हैं।वहां बड़े छोटे, ताऊ,चाचा,बुआ,बहन, भाई भतीजा,मामा,मामी,नाना नानी का बहुत कुछ अर्थ और मायने होता है।


हमें संस्कारों की तरफ लौटना ही पड़ेगा।इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।संस्कार मतलब भारतीय ज्ञान परंपरा को नई पीढ़ी के समक्ष प्रभावी तरीके से बार बार हर समय प्रस्तुत करना।न सिर्फ प्रस्तुत करना अपितु वातावरण को अध्यात्म से जोड़ना और उसे प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रम से जोड़ना।हमारा आध्यात्म ऐसा होना चाहिए जिसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी भी अपनी भूमिका अदा करें।
विज्ञान सिर्फ लग्जरियस जीवन जीने के लिए ही नहीं होना चाहिए अपितु उसे मानव निर्माण हेतु उपयोग में आना चाहिए।विज्ञान हमारे समाज और परिवार को जोड़ने वाला होना चाहिए न कि व्यक्ति को खंड खंड बना देने वाला।आज भूमंडलीकरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सहारे भारतीय परिवारों को खंडित करने में लगा है। नई पीढ़ी में भारतीयता का सम्प्रत्यय अपना महत्व खो रहा है और नई पीढ़ी अवसर प्राप्त होते ही  अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया, इटली जैसे देशों में बसने की सोचता है। सऊदी अरब, दुबई जैसे देशों में लोग धड़ल्ले से मकान और दुकान चला रहे हैं और पैसा कमा रहे हैं।
         भारतीय जीवन पद्धति एक ठोस और मानवोपयोगी पद्धति है।संपूर्ण भारत वर्ष में अभियान चलाकर उस पद्धति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है जो धीरे धीरे पीछे छूटती जा रही है।जीवन के लक्ष्य को सबको बताने की जरूरत है।चाहे कोई अरबपति हो या खरबपति हो उसको उतना ही सुख नसीब होगा जितना उसके नसीब में लिखा है।लोग तर्क दे सकते हैं कि नसीब और भाग्य की बात कायर लोग करते हैं किन्तु यह सत्य नहीं है।श्रम से सब कुछ पाया जा सकता है ऐसा कहने वाले भी उस संतोष को प्राप्त नहीं करते जो अंदर से खुशी देता है।आत्मीय सुख और शांति देता है।यह उसी को प्राप्त होती है जिसके भाग्य में वास्तविक सुख लिखा है।भाग्यं फलती सर्वदा न विद्या न च पौरुषम"।यदि सिर्फ श्रम से ही सब कुछ मिल जाता तो मजदूर जीवन भर मजदूरी नहीं करते।इसलिए भारतवर्ष में प्रारब्ध को भी महत्व दिया जाता है।कहा गया है
      तेज चले धीमी चले हल्की या भारी।
        आगे नहीं जाएगी श्मशान से सवारी।।
     यदि इस पर ध्यान दिया जाएगा तो हम अपनी जीवन पद्धति के महत्व को समझ पाएंगे और भारतीय जीवन शैली को अपनाएंगे।इसी में व्यक्ति और समष्टि का कल्याण निहित है।पशु सभ्यता को सीखने की जरूरत नहीं है।आप कितना भी बड़ा आदमी बन जाएं आपको पूजा पाठ करना ही है।धर्म चाहे अनचाहे निभाना ही है।धन के लिए श्रम करना ही है।सृष्टि को चलाने के लिए एक परिवार की आवश्यकता पड़नी ही पड़नी है। हां,वह परिवार बड़ा रहे या छोटा,यह आपके विवेक और अनुभूति पर निर्भर करता है और सबसे बड़ा पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति जो पुनर्जन्म को स्थापित करता है,के लिए अपनी गठरी तो बांधनी ही पड़ेगी जो उस लोक में खुलती है।उस गठरी को पाप कर्मों से भर लें या नेक कर्मों से यह आप और आपके जीवन पद्धति पर निर्भर करती है।



          आज जरूरी हो चला है कि भारतीय जीवन पद्धति को युगानुकुल बनाने के साथ साथ सांस्कृतिक मूल्यों के साथ तादात्मीकरण कराया जाय जिससे भारतीय जीवन विधा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान मिल सके और हमारा सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे संतु निरामया वाला दर्शन चरितार्थ हो सके।
(महात्मा गांधी ग्रामोदय विवि, चित्रकूट, सतना)

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