...फिर बहस क्यों और किसलिए!

- कृष्ण कुमार निर्माण

भारतीय लोकतंत्र में संसद ऐसा मंदिर हैं जहाँ जनता के हितों की आरती उतारी जाती है,उन पर अमल किया जाता रहा है।परंतु पिछले दो दशकों से ऐसा नहीं हो रहा है बल्कि जनहित का,जनकल्याण का चीरहरण-सा होता है। वैसे आजकल नया चलन है कि नेता लोग इतिहास में बहुत जाते हैं। या तो अतीत की बातें करके राजनीति को चमकाते/घुमाते हैं या फिर भविष्य के सुनहरे सपने दिखाकर बरगलाते हैं। हैरत की बात यह है कि वर्तमान की बात करना तमाम नेताओं ने छोड़ दिया है। उसका कारण साफ है कि यदि वर्तमान की बात की गई तो फिर हर किसी के परखचे उड़ सकते हैं,'इनके' भी 'उनके' भी क्योंकि वर्तमान की बात करने पर जबाबदेही होगी,जो कोई करना नहीं चाहता।
राजनीति में जबाबदेही दोनों को उतनी ही बनती है--सत्ता पक्ष की भी और विपक्ष की भी,,,कम-ज्यादा किसी की नहीं क्योंकि सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी वायदे पूरे करने की है,जो सपने दिखाए,उन्हें साकार करने की है तो वहीं विपक्ष की जिम्मेदारी है कि जनता की बुलंद आवाज बनें।दूसरी तरफ यदि अतीत की बात करते हैं तो आरोप लगाना बेहद सरल कार्य है,यही कार्य किया जा रहा है क्योंकि इससे राजनीति सरलता-सहजता से चमकती है।खैर,यह सब राजनेताओं का काम है,वो इससे किसी भी कीमत पर बाज नहीं आएंगे क्योंकि उन्हें तो राजनीति करनी है पर दुर्भाग्य यह है कि जनता भी नहीं समझती और तो और जनता को भी अब इन्हीं बातों में रस आने लगा है।पता नहीं क्यों.. जनता भी वर्तमान को नहीं देखना चाह रही और जनता भी इसी बात में खुश है कि देखो! अतीत में यह हुआ और भविष्य में ऐसा हो जाएगा?निसंदेह यह मानव की स्वाभाविक प्रवृति है,कोई भी मनुष्य इससे बच नहीं सकता?लेकिन तमाम चिंतनशील व्यक्ति बताते हैं कि किसी भी आदमी को अतीत से सबक लेकर वर्तमान को सुखमय करने की ज्यादा जरूरत है, जिससे निसंदेह भविष्य स्वर्णिम होगा लेकिन यह बात जानते सभी हैं, राजनेता भी जानते हैं मगर मानता कोई भी नहीं, राजनेता भी नहीं मानते?



इसी दौड़ में देश का मीडिया भी शामिल हो गया है। उसे भी अपनी जिम्मेदारी का अब एहसास नहीं रहा,पता नहीं क्यों,,,मीडिया का एक बड़ा तबका भी इसी बहाव में बह रहा है और खुद को बहुत बड़ा दिखाने का प्रयास कर रहा है।सोशल मीडिया का भी लगभग यही हाल हो चुका है मगर फिर भी सोशल मीडिया पर कुछ बचा है,जो हकीकत से बावस्ता है और आवाज उठा रहा है। खैर,ज्यादा इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है।हम मात्र हाल की दो बातों का जिक्र यहाँ सीधे तौर पर करना चाहते हैं,जिससे साफ हो जाएगा कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं?जारी शीतकालीन संसद सत्र में दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई।जिनमें से एक मुद्दा तो देश के नागरिकों के दिल का मुद्दा था और है भी मगर दोनों मुद्दों पर चर्चा हो जाने के बाद वह कहावत सिद्ध हो गई कि खोदा पहाड़ और निकली.......।


ऐसा हम क्यों कह रहे हैं? ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि इसी सत्र में 'वन्देमातरम' और 'चुनाव सुधार' पर जमकर बहस हुई। सत्ता पक्ष ने विपक्ष पर और विपक्ष ने सत्ता पक्ष पर जमकर प्रहार किए।आरोप-प्रत्यारोप हुए।तीखी नोक-झोंक भी हुई।कई बार तल्खी भी सामने आई।बहस हुई,वाकआउट भी हुए। लेकिन बहस से निकला क्या?शायद कुछ भी नहीं क्योंकि 'वन्देमातरम' पर बहस का मतलब था कि बहस के बाद संसद इस नतीजे पर पहुचेंगी कि 'वन्देमातरम' वैधानिक तौर से अब पूरा गाया जाएगा,इस निर्णय की स्वीकृति संसद ध्वनिमत से दे देगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बस 'तेरा-मेरा' हुआ और सब सम्पन्न हो गया,तो फिर बहस किसलिए की,,,क्या मात्र राजनीति चमकाने के लिए या फिर जनता को दिखाने के लिए?क्योंकि 'वन्देमातरम' अभी वैसा ही जैसा था।


दूसरी बहस 'चुनाव सुधार' को लेकर हुई,इस पर भी वही हुआ,,बात होती-होती पता नहीं कहाँ तक चली गई?मगर जहाँ तक जानी चाहिए थी,वहीं तक नहीं गई बस यानि बहस के बाद संसद किसी नतीजे पर नहीं पहुँची कि आखिर चुनाव में फलाँ-फलाँ सुधार करने की ओर बढ़ा जाएगा?क्या-क्या सुधार किए जाएं और कैसे किए जाएं?जो आरोप इन दिनों चुनाव आयोग जैसी संस्था पर लग रहे हैं, उनसे बचने के लिए क्या सुधार किए जा सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर बहस क्यों और किसलिए की गई? हद हो गई है लोकतंत्र में...आखिर कहाँ जाकर रुकेंगे हम? यह न केवल तमाम नेताओं को बल्कि सिविल सोसायटी को भी सोचना चाहिए और सोचना ही होगा अन्यथा हम बहुत कुछ खो देंगे?
(स्वतंत्र लेखक और शिक्षाविद, करनाल)

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