- डॉ. सत्यवान सौरभ
किसी भी जीवंत समाज की पहचान यह नहीं होती कि वह कितनी परंपराओं का पालन करता है, बल्कि यह होती है कि वह परंपराओं को कितनी विवेकपूर्ण दृष्टि से देखता है। इतिहास गवाह है कि जिन समाजों ने प्रश्न पूछने वालों को सम्मान दिया, वही आगे बढ़े; और जिन्होंने उन्हें दबाने की कोशिश की, वे जड़ता और पतन का शिकार हुए। आज जब कोई व्यक्ति, संगठन या विचारक अंधविश्वास, पाखंड और झूठ के खिलाफ आवाज़ उठाता है, तो उसके इरादों पर सवाल खड़े कर दिए जाते हैं। उसे धर्म-विरोधी, संस्कृति-विरोधी या समाज-विरोधी ठहराने की कोशिश की जाती है। यह प्रवृत्ति स्वयं में एक गंभीर प्रश्न है—आखिर समाज को जगाने वालों पर सवाल क्यों?
आस्था और अंधविश्वास के बीच का फर्क समझना आज सबसे बड़ी जरूरत बन चुका है। आस्था व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाती है, उसे नैतिकता, करुणा और आत्मबल प्रदान करती है। इसके विपरीत अंधविश्वास भय, अज्ञान और असहायता को जन्म देता है। आस्था जहां विवेक के साथ चलती है, वहीं अंधविश्वास विवेक को कुचल देता है। दुर्भाग्यवश, आज इन दोनों को जानबूझकर एक-दूसरे में मिलाया जा रहा है, ताकि सवाल पूछने वालों को चुप कराया जा सके और पाखंड के कारोबार को सुरक्षित रखा जा सके।
धर्म का मूल उद्देश्य कभी भी मनुष्य को अज्ञान में रखना नहीं रहा। भारतीय दर्शन की परंपरा तो प्रश्नों और संवादों की रही है। उपनिषदों से लेकर बुद्ध और कबीर तक, हर विचारधारा ने जिज्ञासा और तर्क को महत्व दिया। “सवाल मत पूछो” की संस्कृति भारतीय चिंतन की आत्मा के विपरीत है। इसके बावजूद आज यह धारणा बनाई जा रही है कि सवाल करना आस्था पर हमला है। यह न केवल बौद्धिक रूप से गलत है, बल्कि सामाजिक रूप से भी खतरनाक है।
अंधविश्वास का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि वह शोषण को वैधता देता है। चमत्कारों के नाम पर लोगों को ठगा जाता है, बीमारों को इलाज के बजाय झाड़-फूंक के हवाले कर दिया जाता है, महिलाओं और बच्चों को डर और अपराधबोध में जीने के लिए मजबूर किया जाता है। जब कोई इन कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाता है, तो उसे ‘परंपरा तोड़ने वाला’ घोषित कर दिया जाता है। वास्तव में वह परंपरा नहीं, परंपरा के नाम पर चल रहे शोषण को चुनौती दे रहा होता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि अंधविश्वास केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर लोकतंत्र पर पड़ता है। एक ऐसा समाज, जो तर्क और वैज्ञानिक सोच से दूर हो, वह आसानी से अफवाहों, नफरत और झूठे प्रचार का शिकार बन जाता है। लोकतंत्र की बुनियाद ही सूचित और विवेकशील नागरिकों पर टिकी होती है। जब नागरिक डर और अज्ञान के आधार पर निर्णय लेने लगते हैं, तब लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर पड़ने लगती हैं।
भारत का संविधान इस संदर्भ में एक स्पष्ट मार्गदर्शक है। यह केवल शासन की व्यवस्था नहीं, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है। संविधान वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समानता और मानव गरिमा को बढ़ावा देता है। अनुच्छेद 51(क) में नागरिकों के मूल कर्तव्यों में वैज्ञानिक सोच, मानववाद और सुधार की भावना के विकास की बात कही गई है। इस दृष्टि से देखें तो अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाना किसी की व्यक्तिगत सनक नहीं, बल्कि एक संवैधानिक जिम्मेदारी है।
इसके बावजूद, समाज को जगाने वालों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। इसका एक कारण यह भी है कि परिवर्तन हमेशा असहज होता है। जो व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही हो, उससे लाभ उठाने वाले वर्ग परिवर्तन से डरते हैं। उन्हें लगता है कि यदि लोग सवाल पूछने लगे, तो उनका वर्चस्व खत्म हो जाएगा। इसलिए वे सवाल उठाने वालों को बदनाम करने का आसान रास्ता अपनाते हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका भी इस बहस में महत्वपूर्ण है। जहां एक ओर कुछ मंच विवेक और तर्क को जगह देते हैं, वहीं दूसरी ओर सनसनी और अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला कंटेंट भी तेजी से फैलता है। चमत्कारों की कहानियां, अवैज्ञानिक दावे और डर पैदा करने वाले संदेश अधिक ‘वायरल’ होते हैं। ऐसे माहौल में तर्क की आवाज अक्सर धीमी पड़ जाती है, और तर्क देने वाले व्यक्ति को ‘नकारात्मक’ या ‘विवादित’ करार दे दिया जाता है।
शिक्षा इस पूरी समस्या की जड़ में है। यदि शिक्षा केवल डिग्री दिलाने का माध्यम बनकर रह जाए और उसमें वैज्ञानिक सोच, प्रश्न पूछने की आदत और नैतिक साहस न हो, तो समाज में अंधविश्वास का फैलना स्वाभाविक है। बच्चों को बचपन से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि हर बात को बिना समझे स्वीकार करना जरूरी नहीं है। सम्मानजनक असहमति और तार्किक सोच ही स्वस्थ समाज की नींव होती है।
यह भी सच है कि हर बदलाव धीरे-धीरे आता है। समाज को जगाने वालों की राह आसान नहीं होती। उन्हें विरोध, उपहास और कभी-कभी हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। लेकिन इतिहास में ऐसे ही लोगों ने समाज को नई दिशा दी है। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें भी विरोध झेलना पड़ा। डॉ. आंबेडकर ने जातिगत भेदभाव को चुनौती दी तो उन पर भी सवाल उठे। आज वे सभी समाज-सुधारक सम्मान के साथ याद किए जाते हैं।
आज का समय भी ऐसे ही साहस की मांग करता है। अंधविश्वास के खिलाफ खड़ा होना किसी एक धर्म, वर्ग या समुदाय के खिलाफ खड़ा होना नहीं है। यह मनुष्य की गरिमा और विवेक के पक्ष में खड़ा होना है। यह कहना कि झूठ, पाखंड और डर का धर्म में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, किसी की आस्था का अपमान नहीं, बल्कि उसकी रक्षा है।
समाज को यह तय करना होगा कि वह किस ओर जाना चाहता है—भय और अज्ञान की ओर या विवेक और प्रगति की ओर। यदि हम सच में एक मजबूत, न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक भारत चाहते हैं, तो हमें उन आवाज़ों को सुनना होगा जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। सवालों से डरने के बजाय उनका सामना करना होगा।
अंततः प्रश्न यही है कि समाज को जगाने वालों पर सवाल क्यों? शायद इसलिए क्योंकि जागरूक समाज सत्ता, पाखंड और शोषण के लिए असुविधाजनक होता है। लेकिन यही असुविधा भविष्य की बुनियाद भी होती है। आज यदि हम विवेक की आवाज़ के साथ खड़े होते हैं, तो आने वाली पीढ़ियों को एक अधिक जागरूक, स्वतंत्र और मानवीय समाज मिलेगा।
अंधविश्वास का अंत किसी एक आंदोलन से नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना से होगा। यह चेतना सवाल पूछने से शुरू होती है। इसलिए जो सवाल पूछ रहा है, जो सोचने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह समाज का दुश्मन नहीं, उसका सच्चा मित्र है।
(स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट)





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